राष्ट्र संघ के कार्य

राष्ट्र संघ के कार्य

राष्ट्र संघ का मुख्य उद्देश्य शांति के लिए प्रयास करना था। राष्ट्र संघ का जन्म वास्तव में अंतरराष्ट्रीय शक्तियों की ही मांग पर हुआ था। संधि एवं समझौतों पर आधारित निर्णयों को क्रियान्वित करके विभिन्न देशों के बीच सौहार्द एवं समन्वय लाना राष्ट्र संघ का प्रमुख उद्देश्य था। विशेषतया वर्साय संधि हेतु राष्ट्र संघ से यह अपेक्षा थी कि वह इसे पूर्ण रूप से क्रियान्वित करेगा। वर्साय संधि से राष्ट्र संघ को सार बेसिन पर 15 वर्ष तक शासन करने का अधिकार प्राप्त हुआ था। पांच सदस्य का शासन प्रतिनिधि के रूप में क्रियान्वयन करते थे। कमीशन में फ्रांस का बहुमत था, इसी कारण परिषद द्वारा निर्धारित व्यवस्थाओं का पूर्णतः पालन सुनिश्चित नहीं हो सका। इसी के परिणाम स्वरुप शहर की जनता में राष्ट्र संघ के प्रति असंतोष जागृत हो उठा। सारवासियों के प्रतिनिधि भी अत्यंत धीमी प्रक्रिया द्वारा चुने गए और वह चुनाव भी मात्र मुख दर्शनी हुंडी की सरकार थी, जिसने सार के निवासियों को बेहद दुखी किया और इसी के आधार पर वहां विद्रोह की भावना भड़क उठी तथा कमीशन को हटाने के लिए आंदोलन तीव्र किया गया। सन् 1923 में कमीशन के कार्यों की जांच कराई गई और सन् 1926 में राल्ट ने कमीशन से त्यागपत्र दे दिया।

सार प्रदेश में जनमत संग्रह 1935 में होना सुनिश्चित हुआ था तथा 20 वर्ष से अधिक आयु वाले व्यक्ति इस जनमत संग्रह में भाग लेने के अधिकारी माने गए थे। इधर सार को बलपूर्वक हथियाने के लिए 1935 से पूर्व ही हिटलर ने धमकी भी दी थी। 1935 में 13 जून जनमत संग्रह के लिए निर्धारित की गई थी। सार निवासी अपने राज्य के जर्मनी में विलय के पक्ष में ही है। अतः राष्ट्र संघ ने 1 मार्च 1935 को ही सार राज्य का शासन जर्मनी को सौंप दिया गया, परंतु शहर की जनता का पक्ष यह स्वीकार करता था कि नाजी वादी नीतियां सार देश को महंगी पड़ सकती है, इस कारण सार देश का शासन राष्ट्र संघ को ही सौपा जाना अच्छा रहेगा।

राष्ट्रसंघ ने धारा 22 के तहत प्रदेशात्मक शासन पद्धति को अपनाया था। धारा 22 में उल्लेख है कि “उन औपनिवेशिक क्षेत्रों पर, जो पिछले युद्ध के परिणाम स्वरुप उन राज्यों की संप्रभुता में नहीं रह गए हैं, जिनका पहले उन पर शासन था तथा जिनमें ऐसे लोग बसते हैं जो आधुनिक विश्व की कठिन परिस्थितियों में स्वयं समर्थवान नहीं हैं, यह सिद्धांत लागू किया जाए कि ऐसे लोगों का कल्याण तथा विकास पवित्र न्यास है। इस सिद्धांत को व्यवहारिक रूप देने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि ऐसे लोगों का संरक्षण और उन्नतिशील राष्ट्रों को सौंप दिया जाए जो इस उत्तरदायित्व को सर्वोत्तम रूप से निभा सकते हैं और संरक्षण अधिकार का उपयोग वे राष्ट्र संघ की ओर से आदेश प्राप्त राज्य के रूप में करें।” अनेक ऐसे कारण पैदा हुए जिनके कारण प्रादेश शासन पद्धति को अपनाना पड़ा था। प्रदेश कई प्रकार के थे। अ श्रेणी में वे राज्य थे जो विकसित थे अथवा विकास उस सीमा तक हो चुका था। सरकारी निरीक्षण की आवश्यकता वाले जर्मनी एवं दक्षिण अफ्रीका के उपनिवेशों को ब’ श्रेणी में रखा गया था तथा श्रेणी में दक्षिण पश्चिमी अफ्रीका समूह द्वारा प्रशांत महासागर के द्वीप को क्रमशः दक्षिण अफ़्रीकी संघ न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, जापान को दिए जाने की संस्तुति की गई। प्रदेशों के संबंध में राष्ट्र संघ को यह अधिकार प्राप्त थे कि प्रदेश प्राप्त राज्यों को प्रदेश आधीन प्रदेशों के संबंध में प्रतिवर्ष राष्ट्र संघ की परिषद को एक वार्षिक प्रतिवेदन भेजना होगा। इन प्रदेशों के शासन के संबंध में राष्ट्र संघ की परिषद निर्देश प्रदान कर सकती थी, इसके अतिरिक्त वार्षिक प्रतिवेदनों की जांच स्थाई प्रदेश आयोग करेगा तथा संस्तुतियां राष्ट्र संघ को प्रस्तुत करेगा।

इन सभी कारणों से प्रदेश शासन व्यवस्था की मान्यता बहुत कम हो गई थी। इस संबंध में लॉर्ड बालफोर का कथन है कि “प्रादेश तथा विजेता राष्ट्र द्वारा विजय किए गए प्रदेश में अपनी प्रभुसत्ता पर शिक्षक पूर्व लगाई गई मर्यादा है।” इन परिस्थितियों में राष्ट्र संघ के पास जनमत संग्रह प्रविधि के अलावा और कोई रास्ता नहीं रह जाता था। वैसे भी प्रादेशिक व्यवस्था एक दृष्टिकोण से एक पक्षीय सिद्ध हो चुकी थी। मांडर का प्रदेश शासन व्यवस्था के बारे में मानना है कि “निसंदेह इसका औपनिवेशिक शासन पर प्रभाव पड़ा क्योंकि ब्रिटेन अथवा फ्रांस के लिए अपने आप निवेशक प्रदेशों पर एक प्रकार से और अपने प्रादेशिक प्रदेशों पर दूसरे प्रकार से शासन करते रहना संभव नहीं था।”

Failure of league of Nation ( राष्ट्रसंघ की असफलता )

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