भारतीय संविधान के स्त्रोत

संविधान निर्माता अनेक स्थानों से संविधान निर्माण के लिए विषय वस्तु का संकलन करते हैं। संविधान सभा द्वारा निर्मित लिखित दस्तावेज ही संविधान नहीं होता। संविधान की विचारधारा, मान्यताएं एवं दर्शन को कहीं न कहीं से प्रेरणा अवश्य मिलती है। संविधान निर्मित शासन तंत्र का आधार भी किसी न किसी अन्य तंत्र से स्फूर्ति ग्रहण करता है। यह बात सच है कि ब्रिटिश हुकूमत समाप्त होने के बाद 26 जनवरी 1950 को भारत का जो नया संविधान लागू किया गया, वह विभिन्न देशी-विदेशी प्रभावों से मुक्त है। नवीन संवैधानिक ढांचा ब्रिटिशकालीन शासन व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विरासत थी। विदेशी संविधानों की अनेक अच्छी बातें संविधान निर्माताओं ने ग्रहण कर ली तथा एक सुंदरतम् संवैधानिक आलेख का निर्माण किया।

भारतीय संविधान के मुख्य स्त्रोत इस प्रकार हैं :

1) भारतीय संविधान का मूल दस्तावेज : भारत का संविधान संविधान निर्मात्री सभा द्वारा निर्मित लिखित आलेख है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं। इस संविधान को स्वरूप की दृष्टि से विश्व का सबसे बड़ा संविधान कहा जा सकता है क्योंकि इसमें लगभग 22 भाग और 400 पृष्ठ हैं। हमारे संविधान में केवल केंद्रीय शासन के विभिन्न अंगों के संगठन तथा कार्यों का वर्णन नहीं किया गया बल्कि राज्यों के संगठन का भी विस्तार से उल्लेख किया गया है। भारतीय संविधान निर्माता देश को एक सूत्र में बांधने के लिए एक ही संविधान देना चाहते थे। यही कारण है कि हमारे संविधान के मूलभूत दस्तावेज में ऐसी बहुत सी बातों का समावेश कर दिया गया है जो साधारणतः सामान्य विधि निर्माण के लिए छोड़ दी जाती है, जैसे: वित्त, संपत्ति, संविदा, भारत राज्य क्षेत्र के भीतर व्यापार-वाणिज्य, संघ के अधीन सेवाएं, राजभाषा आदि।

2) संविधान के वाद-विवाद : भारतीय संविधान को समझने के लिए संविधान सभा की डिबेट्स का गंभीर परायण अनिवार्य है। संविधान सभा के वाद विवाद प्रतिवेदन के अध्ययन से संविधान निर्माताओं के ध्येय एवं इच्छाओं का बोध होता है। संविधान सभा की कार्यवाही एवं वाद विवाद काफी विस्तृत है और उनके सूक्ष्म अध्ययन से संविधान में प्रयुक्त शब्दावली का स्पष्ट भाव निकाला जा सकता है। गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य के विवाद में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने संविधान के वाद विवाद का पर्याप्त लाभ उठाया, ताकि अनुच्छेद 13 और 21 की समुचित व्याख्या की जा सके।

3) पुराने संवैधानिक अधिनियम : हमारे संविधान पर संवैधानिक कानूनों जैसे- 1858, 1892,1909, 1919 तथा 1935 का अत्यधिक प्रभाव है। संविधान में अनेक बातें इन संवैधानिक अधिनियम से ले ली गई हैं। वास्तव में भारत का वर्तमान संविधान एक बहुत बड़े अंश तक 1935 के भारत शासन अधिनियम पर आधारित है और उस नियम के अधिकांश उपबंध न्यूनतम आवश्यक संशोधनों के साथ संविधान में सम्मिलित कर लिए गए हैं। अधिनियम की लगभग 200 धाराएं थोड़ी बहुत परिवर्तन के साथ संविधान में जोड़ी गई है।

4) संविधियां, अध्यादेश, नियम-विनियम, आदेश आदि : संविधान के मूल प्रलेख के अतिरिक्त संविधियां, अध्यादेश, नियम विनियम, आदेश आदि भी हमारे संविधान के कानूनी तत्व हैं। संविधियां केंद्रीय और राज्य विधान मंडलों द्वारा बनाई जाती हैं। संसद ने अनेक कानून बनाए हैं, जो संविधान के अभिन्न भाग बन गए हैं। इन अधिनियम में भारतीय नागरिकता अधिनियम 1959, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1957 एवं उपराष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम 1952, अस्पृश्यता दंड अधिनियम 1955 प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त संसद को अपने कार्य संचालन एवं कार्य प्रणाली हेतु नियम बनाने की भी शक्ति प्राप्त है।

5) संवैधानिक संशोधन : सन् 1950 से अब तक भारतीय संविधान में 100 से अधिक संशोधन हो चुके हैं और वह सब भारतीय संविधान के अभिन्न स्त्रोत हैं। इन संवैधानिक संशोधनों से संविधान की बुनियादी धारणा और स्वरूप में अंतर आया है। उदाहरण – संविधान के प्रथम, चतुर्थ, 17वें, 25वें, 26वें, 19वें और 44वें संशोधनों द्वारा संपत्ति के अधिकार में आधारभूत अंतर आया है और अब संपत्ति का अधिकार एक मौलिक अधिकार नहीं रहा है। 24 वें संविधान संशोधन द्वारा संसद को संविधान के किसी भी उपबंध में संशोधन करने का अधिकार प्राप्त हो गया है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ के विवाद में संसद के इस अधिकार को सीमित कर दिया था।

6) विश्व के अन्य संविधानों का प्रभाव : यह बात तो निर्विवाद रुप में स्वीकार करनी ही पड़ेगी कि हमारे संविधान पर विदेशी विचारधाराओं एवं शासन-विधान की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है। हमने ब्रिटिश आदर्श की संसदीय शासन प्रणाली अपनायी है, जिसके अंतर्गत मंत्रिमंडल सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है तथा राष्ट्रपति ब्रिटिश सम्राट की भांति औपचारिक प्रधान ही है। ब्रिटिश संसद की भांति हमारी लोकसभा देश की राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बना दी गई है। अमेरिकी संविधान के बुनियादी सिद्धांतों का प्रभाव भी हमारे संविधान पर दिखाई पड़ता है। संघात्मक शासन व्यवस्था, मौलिक अधिकारों का अध्याय, स्वतंत्र और निष्पक्ष सर्वोच्च न्यायालय एवं न्यायिक पुनर्निरीक्षण का सिद्धांत अमेरिकी संवैधानिक आदर्श पर ही अपनाए गए हैं। फ्रांसीसी संविधान की मिसाल पर हमारे नए स्वतंत्र लोकतंत्र को गणतंत्र बनाया गया है। अन्य संघों की भांति हमारे संविधान द्वारा भी संघ और राज्यों के बीच शक्ति का विभाजन किया गया है, संविधान के इस अंश का निर्माण कनाडा के संघ की प्रेरणा पर आधारित है। परंतु हमारे संविधान में एक समवर्ती सूची और जोड़ दी गई है, जो आस्ट्रेलिया के संविधान की देन कही जा सकती है। आयरलैंड के संविधान से ही हमारे संविधान निर्माताओं ने राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों की प्रेरणा ली है।

7) न्यायिक निर्णय : भारतीय संविधान का एक प्रमुख स्त्रोत वे न्यायिक निर्णय हैं, जो न्यायाधीशों ने समय-समय पर दिए हैं। न्यायाधीश संवैधानिक कानून की व्याख्या करते हैं और उनके निर्णय तब तक प्रभावी रहते हैं जब तक कि न्यायपालिका स्वयं के द्वारा इस संबंध में कोई अन्य निर्णय न दे दे। भारत के सर्वोच्च न्यायालय और विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा ऐसे अनेक न्यायिक निर्णय दिए गए हैं, जो हमारे देश के कानून का उसी प्रकार महत्वपूर्ण भाग हैं, जिस प्रकार संविधान के विभिन्न अनुच्छेद। उदाहरणार्थ, गोपालन बनाम मद्रास राज्य के मुकदमे में सर्वोच्च न्यायालय ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता का क्षेत्र परिभाषित किया है। चिंतामनराव के मुकदमे में अनुच्छेद 19 में उल्लेखित उचित सीमाओं की व्याख्या की गई है। आत्माराम के मुकदमे में निवारक निरोध अधिनियम में नजरबंद व्यक्ति को प्राप्त सुरक्षाओं की व्यवस्था की गई है।

8) संवैधानिक टीकायें एवं संविधान विशेषज्ञों के विचार : भारतीय संविधान का एक अन्य महत्वपूर्ण स्त्रोत भारतीय संवैधानिक कानून पर लिखी गई टीकायें और ग्रंथ हैं। इन टीकाओं और ग्रंथों में डी.डी. बसु द्वारा लिखित ‘कमेंट्री ऑन द कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ़ इंडिया’, लेडिहिल की ‘रिपब्लिक ऑफ इंडिया’ अलेक्जेंड्रोविच की ‘कांस्टीट्यूशनल डेवलपमेंट इन इंडिया’ जेनिंग्स की ‘सम करैक्टेरिस्टिक्स ऑफ द कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ़ इंडिया’ कॉल एवं शकधेर की ‘प्रैक्टिस एंड प्रोसीजर ऑफ पार्लियामेंट’ आदि प्रमुख हैं। संवैधानिक कानून के विशेषज्ञों में एम. ए. पालकीवाला, सिरबई, नीरेन डे, लक्ष्मीमल्ल सिंघवी, अशोक कुमार सेन, एच.आर. गोखले इत्यादि द्वारा समय-समय पर व्यक्त विचार अत्यंत महत्वपूर्ण माने जाते हैं।