द्वंदात्मक भौतिकवाद : कार्ल  मार्क्स

 

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  • परिचय
  • द्वंदात्मक पद्धति
  • भौतिकवाद
  • द्वन्दात्मक भौतिकवाद
  • द्वन्दात्मक भौतिकवाद की विशेषताएं
  • आलोचना
  • मूल्यांकन


परिचय
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द्वंदात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत मार्क्स के संपूर्ण चिंतन का मूल आधार है। द्वंद का विचार मार्क्स ने हीगल से ग्रहण किया तथा भौतिकवाद का विचार फ्यूअरबाख से लिया। क्योंकि इस सिद्धांत का प्रतिपादन दो विचारों द्वंद तथा भौतिकवाद के सम्मिश्रण से हुआ है। अतः इसको सही ढंग से समझाने के लिए दोनों विचारों की संक्षिप्त जानकारी आवश्यक है।

द्वंदात्मक पद्धति द्वंदात्मक पद्धति का सर्वप्रथम प्रतिपादन हीगल द्वारा अपनी विश्वात्मा (world spirit) संबंधी मान्यता को सिद्ध करने के लिए किया गया था। इस दृष्टि से उसने द्वंद को वैचारिक द्वंद के रूप में प्रतिपादित कर यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि किसी विचार के उत्पन्न और परिमार्जित होने की प्रक्रिया क्या है। हीगल की इस द्वंदात्मक पद्धति को स्पष्ट करने हेतु हंट का कथन है कि – द्वंदात्मक प्रक्रिया वाद (thesis), प्रतिवाद(antithesis) तथा संवाद(synthesis) की प्रक्रिया है। वाद एक विचार की पुष्टि करता है, प्रतिवाद उसका निषेध करता है और ‘संवाद’ वाद और प्रतिवाद में जो सत्य है उसे स्वयं में समाहित करता है। इस तरह वह हमें यथार्थ के अधिक निकट ले आता है, लेकिन जैसे ही हम संवाद को अधिक निकट से देखते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि वह अभी भी अपूर्ण है। अतः वह पुनः वाद का रूप धारण कर लेता है और पुनः वहीं पूर्व की संघर्ष की प्रक्रिया को प्रारंभ कर देता है। फलत: उसका प्रतिवाद द्वारा निषेध होता है और संवाद में पुनर्मिलन होता है। इस प्रकार यह त्रिकोणात्मक विकास प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कि तत्व या विचार आदर्श रूप ग्रहण नहीं कर लेता है।”

इस प्रकार हीगल के अनुसार वैचारिक विकास की यह प्रक्रिया वाद, प्रतिवाद और संवाद के माध्यम से तब तक चलती रहती है, जब तक विचार सारे अंतर्विरोधों से मुक्त होकर आदर्श रूप धारण नहीं कर लेता है।

  भौतिकवाद मार्क्स ने भौतिकवाद का प्रयोग द्वंदवाद को एक नई दिशा देने के लिए किया , जो हीगल की वैचारिक द्वंद पद्धति से भिन्न है। भौतिकवाद के महत्व को स्पष्ट करते हुए उसने घोषित किया कि सृष्टि का उद्गम, विकास और अंत सभी इंद्रियों से दृष्टिगत होने वाले पदार्थों पर आधारित है। वह हीगल की तरह आत्मा परमात्मा जैसी अदृश्य वस्तुओं के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता। वह प्रत्यक्ष दिखाई देने वाले पदार्थों को ही सत्य के रूप में स्वीकार करता है और उनके माध्यम से दृष्टि निर्माण और उसे संचालन की विभिन्न नियमों का प्रतिपादन करता है अपनी इस मान्यता को स्पष्ट करते हुए वह कहता है कि – “यह पदार्थ जो बाहर से हमें जड़ या स्थिर दिखाई देता है वास्तव में जड़ या स्थिर नहीं है। यह पदार्थ अपनी आंतरिक सचेतना या सक्रियता के कारण निरंतर गतिशील है और उसकी यह गतिशीलता ही उसे निरंतर उर्धमुखी परिवर्तनशीलता की ओर उन्मुख किए हुए है। इसका एक क्रमिक प्रवाह है।”

इस प्रकार मार्क्स विचार की नहीं, पदार्थ की विकासशील शक्ति में विश्वास व्यक्त करते हुए उसके माध्यम से ही मानव समाज की परिवर्तन प्रक्रिया और विकास की गतिशीलता को सिद्ध करता है। पदार्थ उसके अनुसार स्वचेतन और गतिशील है और अपने में निहित अंतर्द्वंद के माध्यम से सतत् ऊर्ध्वमुखी विकास की ओर अग्रसर है। व्यक्तिगत और सामाजिक विकास का यही मुख्य कारण है।

द्वन्दात्मक भौतिकवाद मार्क्स ने मानव सभ्यता के ऐतिहासिक विकास को दर्शाने के स्थान पर पदार्थ को स्थापित कर दिया। इस संशोधन को स्पष्ट करते हुए स्वयं मार्क्स का कथन है कि ईगल के लेखन में द्वंद्ववाद सिर के बल खड़ा है यदि आप रचनात्मकता के आवरण में छिपे उसके सारे तत्व को देखना चाहते हैं तो आपको उसे पैरों के बल (अर्थात भौतिक आधार पर) सीधा खड़ा करना पड़ेगा। इस प्रकार मार्क्स ने भौतिकवाद का पुट देकर हीगल के द्वंदवाद को शीर्षासन की अप्राकृतिक स्थिति से मुक्त कर दिया और उसे सामाजिक विश्लेषण का एक उपयोगी औजार बना दिया।

मार्क्स अपनी इस पद्धति को स्पष्ट करते हुए आगे कहता है कि “पदार्थ अर्थात् भौतिक जगत द्वंद्वात्मक पद्धति के माध्यम से अपनी पूर्णता की यात्रा पर अग्रसर है। उसके विभिन्न रूप उसकी इस यात्रा के विभिन्न पड़ाव है। अतः मार्क्स का भौतिकवाद अन्य भौतिकवादियों के भौतिकवाद की तरह यांत्रिक नहीं वरन् द्वंद्वात्मक चरित्र का है। उसके अनुसार विकास पदार्थ का आंतरिक गुण है बाहरी नहीं। वह स्वत: होता है चाहे बाहरी वातावरण उसका सहायक हो या न हो।”

द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर मार्क्स यह मत प्रतिपादित करता है कि विश्व अपने स्वभाव से ही पदार्थवादी है। अतः विश्व के विभिन्न रूप गतिशील पदार्थ के विकास के विभिन्न रूपों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह विकास द्वंद्वात्मक पद्धति के माध्यम से होता है। अतः भौतिक विकास प्राथमिक महत्व का है और आत्मिक विकास द्वितीय महत्व का है। वास्तव में आत्मिक विकास भौतिकी विकास का प्रतिबिंब मात्र है। इसी आधार पर वह यह कहता है कि मनुष्यों की चेतना उनके सामाजिक स्तर को निर्धारित नहीं करती है वरन् उनका सामाजिक स्तर उनकी चेतना (thinking) को निर्धारित करता है।’

द्वन्दात्मक भौतिकवाद की विशेषताएं –

1. आंगिक एकता विश्व का चरित्र भौतिक है तथा उसकी वस्तुएं और घटनाएं एक दूसरे से पूर्णतः संबद्ध है। अतः उसके महत्व को निरपेक्षता के आधार पर नहीं सापेक्षता के आधार पर ही समझा जा सकता है अर्थात् प्रकृति के सभी पदार्थों में आंगिक एकता पाई जाती है।

2. गतिशीलता प्रकृति में पाया जाने वाला प्रत्येक पदार्थ जड़ या स्थिर न होकर गतिशील होता है।

3. परिवर्तनशीलता पदार्थिक शक्तियां सामाजिक विकास की प्रेरक शक्तियां हैं। वे गतिशील ही नहीं, परिवर्तनशील भी हैं। अतः सामाजिक विकास भी उन्हीं के अनुरूप परिवर्तनशील है। परिवर्तन की यह प्रक्रिया द्वंदवाद के माध्यम से चलती है।

4. परिमाणात्मक परिवर्तन गुणात्मक परिवर्तन के कारक होते हैं निरंतर होने वाले परिवर्तन प्रारंभ में परिमाणात्मक (quantitative) चरित्र के होते हैं तथा धीरे-धीरे घटित होते हैं तथा जब उनकी मात्रा बढ़ जाती है तो एकाएक वह गुणात्मक (qualitative) परिवर्तन में बदल जाते हैं। गेहूं का बीज इसका अच्छा उदाहरण है। गेहूं के बीज को बोया जाना वाद है, उसका अंकुरण प्रतिवाद है, और धीरे-धीरे गेहूं के पौधे का बड़ा होना और उसकी बाली का पकना संवाद है। गेहूं के एक दाने का बाली के माध्यम से बहुत से दाने में परिवर्तन उसके मात्रात्मक परिवर्तन से गुणात्मक परिवर्तन का प्रतीक है। बीज के रूप में गेहूं का बोया जाना, उसका अंकुरण होना उसका पौधा बनना तथा बाली पकना और एक से अनेक दाने हो जाना यह द्वंद्वात्मक प्रक्रिया का ही अच्छा उदाहरण नहीं है, वरन् मात्रात्मक से गुणात्मक परिवर्तन का भी एक अच्छा उदाहरण है।

5. क्रांतिकारी प्रक्रिया परिमाणात्मक परिवर्तन के गुणात्मक परिवर्तन में अभिव्यक्त होने की प्रक्रिया को एक क्रांतिकारी प्रक्रिया माना जाता है, जो एक छलांग के रूप में होती है अर्थात् वह एक मौलिक परिवर्तन की निशानी होती है।

6. सकारात्मक नकारात्मक संघर्ष हर वस्तु में उसके विरोधी तत्व विद्यमान होते हैं जो समय पाकर अभिव्यक्त होते हैं। उनमें होने वाले संघर्ष से वह वस्तु नष्ट हो जाती है और नई वस्तु उसका स्थान ले लेती है, जो पहले वाली वस्तु से अधिक विकसित होती है तथा जो विकास के क्रम की निरंतरता को बनाए रखती है।

मार्क्स के अनुसार इस प्रकार कार्य करते हुए द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पद्धति विश्व तथा मानव सभ्यता के विकास को समझने में हमारे लिए एक पथ प्रदर्शक सूत्र या यंत्र का कार्य करती है।

आलोचना –

1. भौतिक तत्व निर्णायक तत्व नहीं विश्व सभ्यता के विकास में मार्क्स भौतिकवादी तत्व अर्थात् पदार्थ को निर्णायक तत्व मानता है तथा यह प्रतिपादित करता है कि मानवीय चेतना उसी का परिणाम है। मानवीय चेतना का कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है , यह मानना उचित नहीं है। मनुष्य सिर्फ एक भौतिक प्राणी ही नहीं एक अतिरिक्त चेतनाशील प्राणी है।

मनुष्य पशु की तरह नहीं बल्कि मनुष्य की तरह जीना चाहता है और यह तभी संभव है जबकि वह भौतिकवाद को एक साधन और आत्मिक उत्थान को अपने जीवन का एक लक्ष्य मानकर उसकी उपलब्धि हेतु प्रयत्नशील हो। भौतिकवाद मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं करता है जो कि एक अनुचित धारणा है। पेट भर खाने पीने के बाद भी पशुओं में वह आत्मिक चेतना उत्पन्न नहीं होती जो मनुष्य में होती है। यह चेतन तत्व ही उसे पशु जगत से पृथक् कर मनुष्य होने का अनुभव कराता है। मार्क्स इस बात का अनुभव नहीं कर सका और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति को ही द्वंदवाद के माध्यम से मानव जीवन का लक्ष्य घोषित कर बैठा। मनुष्य की मनुष्य होने के नाते आत्मसंतुष्टि, भौतिक उत्थान से ही नहीं वरन् उसके माध्यम से आत्मिक उत्थान के लक्ष्य प्राप्त करके ही संभव है। भौतिकवाद इस दृष्टि से मनुष्य की बहुत अधिक सहायता नहीं करता है। यह उसके उत्थान की लक्ष्मण रेखा नहीं है।

2. एक समय विशेष में वाद, प्रतिवाद और संवाद का पता लगाना संभव नहीं मनुष्य समाज का विकास एक बहुत ही जटिल प्रक्रिया का प्रतीक है। विभिन्न तत्व और क्रियाएं इस तरह आपस में घुली मिली होती हैं कि उनका वाद, प्रतिवाद और संवाद में विभाजित करना कठिन ही नहीं, लगभग असंभव होता है। विरोध और विरोध में निहित अंतर्विरोध सामाजिक विकास को इतना जटिल बना देते हैं कि साधारण मनुष्य के लिए तो क्या बल्कि बुद्धिमान व्यक्तियों के लिए भी उसकी दशा दिशा को ठीक प्रकार से समझ पाना और उसके अनुसार अपने आचरण को निर्धारित करना एक कठिन ही नहीं, असंभव सा कार्य है। दरअसल ये क्रियाएं अलग-अलग चरणों में सक्रिय होने के बजाय संभव रूप से चलती हैं तथा एक दूसरे की सीमा रेखाओं का अतिक्रमण करती रहती हैं। वाद प्रतिवाद और प्रतिवाद वाद हो सकता है ऐसी स्थिति में संवाद का पता लगाना एक उलझन भरा और भ्रमित करने वाला कार्य हो सकता है। अतः इस सिद्धांत के आधार पर सामाजिक विकास के सही रूप को समझना अपने आप में एक दुष्कर कार्य होगा।

3. आदर्श के उपलब्ध होने पर भी नियम निष्क्रिय नहीं होगा मार्क्स ने वर्ग विहीन, राज्य विहीन समाज की स्थापना पर तुलनात्मक नियम का निष्क्रिय होने का मत प्रतिपादित किया है, लेकिन ऐसा संभव नहीं होगा। पदार्थ को मार्क्स गतिशील और परिवर्तनशील प्रकृति का बताता है। उसमें निहित अंतर्विरोध उसे निरंतर आदर्श स्थिति में नहीं बने रहने देगा। यह नियम एक निरंतर सक्रिय रहने वाला नियम है। अतः आदर्श को यह शनै: शनै: पतनशील बनाकर गुणात्मक परिवर्तन के कारण आदर्श की स्थिति में ले जाएगा। आदर्श और अनादर्श का संघर्ष विश्व इतिहास का एक सनातन तथ्य है। मनुष्य की गतिशील सक्रियता मूर्ति निर्माण और मूर्ति-भंजक दोनों रही है। पुरानी मूर्तियों से असंतुष्ट होकर वह उनका विध्वंस और उनके स्थान पर नई मूर्तियां स्थापित कर रहा है। जो उसे एक समय आदर्श लगता है वही समय बीतने के साथ उसे अनादर्श लगने लगता है या लग सकता है। मनुष्य अपने सृजन से कभी भी संतुष्ट नहीं होता। वह नित्य नए प्रयोग करने का आदी रहा है। यह एक तरह से उसके स्वभाव का गुण है। अतः न पदार्थ और न उससे निर्मित मनुष्य कभी आदर्श स्थित पाकर शांत बैठेगा और न वह स्थिति अनवरत बनी रहेगी।

4. द्वंदवाद एक खतरनाक पद्धति मार्क्स ने आर्थिक नीतिवाद का सिद्धांत प्रतिपादित करते हुए यह बताया कि सामाजिक परिवर्तन में आर्थिक स्थितियां निर्णायक भूमिका का निर्वाह करती हैं। इसका सीधा साधा अर्थ यह हुआ कि मनुष्य में अपने विकास क्रम को बदलने की सामर्थ्य नहीं है। यदि हम मार्क्स की इस मान्यता को स्वीकार कर लेते हैं तो इसका प्रत्यक्ष अर्थ यह होगा कि आर्थिक शक्तियों द्वारा समर्पित आदर्श के अतिरिक्त मनुष्य के अन्य सारे धार्मिक, नैतिक और आत्मिक आदर्श व्यर्थ हैं जबकि वास्तव की स्थिति ऐसी नहीं है। आर्थिक स्थितियों का सामाजिक परिवर्तन में महत्व स्वीकार करते हुए भी हम उनसे दिगर आदर्शों और मूल्यों के महत्व को स्वीकार करने से इनकार नहीं कर सकते। आर्थिक स्थितियों के बावजूद वह भी सामाजिक परिवर्तन में महत्वपूर्ण शक्ति का निर्वाह करती हैं और कभी-कभी तो ऐसे परिवर्तन कर देती हैं जिनका आर्थिक स्थितियों से मेल बिठाना लगभग असंभव सा हो जाता है।

5. मानव इतिहास उत्थान का ही इतिहास नहीं है मार्क्स ने द्वंदवादी सिद्धांत के अनुसार यह बताया है कि विकास हमेशा ऊर्ध्वगामी होता है अर्थात् हमेशा यह मनुष्य समाज को प्रगति की दिशा में ले जाता है। यदि ऐसा होता तो आज मानव समाज की जैसी स्थिति है उससे उसकी स्थिति पूर्णतया भिन्न होती और उस आदर्श व्यवस्था अर्थात् वर्ग विहीन, राज्य विहीन समाज व्यवस्था की स्थापना कब की हो गई होती, जिसकी व्याख्या मार्क्स ने अपने चिंतन के माध्यम से की है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। न तो मनुष्य समाज का विकास मार्क्स द्वारा प्रतिपादित तरीके से हुआ और न उसके वे परिणाम हुए जिनकी संभावना मार्क्स ने व्यक्त की थी। मानव जाति का इतिहास उत्थान और पतन दोनों का है। कभी स्थितियां समाज को उत्थान की ओर ले जाती हैं तो कभी पतन की ओर। मानव इतिहास उत्थान पतन का एक मिश्रित उदाहरण है, वह सिर्फ उत्थान की दास्तान ही नहीं है।

6. संघर्ष विकास का एकमात्र आधार नहीं द्वंदवाद के माध्यम से मार्क्स संघर्ष को विकास का एकमात्र आधार घोषित करता है। यह एक अर्ध सत्य है, पूर्ण सत्य नहीं। संघर्ष और सहयोग स्थिति अनुसार दोनों ही विकास के साधन है तथा इन दोनों के माध्यम से ही मनुष्य अपने आदर्शों को प्राप्त करने का प्रयास करता है तथा अतीत में भी करता आया है।

मूल्यांकन मार्क्स द्वारा प्रतिपादित भौतिकवादी द्वंदात्मक सिद्धांत का उपर्युक्त आलोचनाओं के कारण उसके महत्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। अपनी सारी कमियों और कमजोरियों के बावजूद वह हमें सामाजिक प्रगति के स्वरूप और विकास को समझने हेतु एक पैमाना प्रदान करता है। चाहे पैमाना एकांकी चरित्र का ही हो लेकिन एक पैमाना एक मापदंड तो है ही। फिर पूर्ण सत्य कोई वस्तु नहीं होती। सभी पैमाने चाहे वे आदर्शवादी हों या भौतिकवादी, अपूर्ण हैं लेकिन फिर भी अपना महत्व रखते हैं क्योंकि मनुष्य इन सभी पैमानों में समर्थ हो सकता है जो हमें आदर्श नहीं तो आदर्श के निकट अवश्य पहुंचा सकता है। हर पैमाने का यही महत्व है और इस दृष्टि से मार्क्स द्वारा प्रदत इस पैमाने का भी महत्व है। वह हमें देखने की एक दृष्टि देता है जिसका प्रयोग करके हम संपूर्ण को नहीं तो कम से कम उसके एक पक्ष को अवश्य देख सकते हैं।

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