विकासवादी सिद्धांत

विकासवादी सिद्धांत (EVOLUTIONARY THEORY)

 

परिचय (introduction) –

अब तक राज्य की उत्पत्ति के संबंध में जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया, उनमें दैवी सिद्धांत, शक्ति सिद्धांत, सामाजिक समझौता सिद्धांत, पैत्रक सिद्धांत और मात्रक सिद्धांत हैं, लेकिन राज्य की उत्पत्ति की व्याख्या के रूप में इनमें से किसी भी सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया जा सकता। दैवीय शक्ति सिद्धांत और समझौता सिद्धांत में एक बात समान रूप से पाई जाती हैं कि राज्य का एक विशेष समय पर निर्माण किया गया, किंतु वास्तव में राज्य का निर्माण नहीं किया गया, यह तो निरंतर विकास का परिणाम है। इसके साथ ही पैत्रक और मात्रक सिद्धांत की इस बात को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि राज्य परिवार का विस्तार मात्र है, क्योंकि परिवार और राज्य की प्रकृति में कुछ आधारभूत भेद है।

राज्य विकास का परिणाम है, और राज्य की उत्पत्ति की सही व्याख्या ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धांत द्वारा ही की गई है। इस सिद्धांत के अनुसार राज्य का विकास एक लंबे समय से चला आ रहा है और आदिकालीन समाज से क्रमिक विकास करते करते इसने वर्तमान राष्ट्रीय राज्य के स्वरूप को प्राप्त किया है।

राज्य के विकास में सहायक प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं –

(1) रक्त संबंध(kinship) यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि सामाजिक संगठन का प्राचीनतम रूप रक्त संबंध पर आधारित था और रक्त संबंध एकता का प्रथम और सुद्रढ बंधन रहा है। प्रारंभिक समय में जो बात उन्हें पास लाती थी और एक दल के रूप में संगठित होने के लिए प्रेरित करती थी, वह सामान उत्पत्ति में विश्वास ही था और परिवार का चिंतन तथा निकटतम रक्त संबंध की इकाई था। यद्यपि यह प्रश्न विवादास्पद है कि कबीला, कुल या परिवार में पहले कौन अस्तित्व में आया, लेकिन इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि परिवार के स्पष्ट व्यक्ति नियंत्रण के आधार पर ही राज्य की स्थापना हुई होगी।

(2) मनुष्य की स्वाभाविक सामाजिक प्रवृत्तियां(natural social instinct of men) मनुष्य स्वभाव से ही एक सामाजिक और राजनीतिक प्राणी है और समूह में रहने की मनुष्य की प्रवृत्ति ने राज्य को जन्म दिया है। समाज में साथ-साथ रहते हुए जब विभिन्न व्यक्तियों के स्वभाव और स्वार्थगत भेदों के कारण विभिन्न प्रकार के विवाद उत्पन्न हुए, तो इन विवादों को दूर करने के लिए एक संप्रभुता संपन्न राजनीतिक संस्था की आवश्यकता समझी गई और राज्य का उदय हुआ। इस प्रकार राज्य को बहुत अधिक सीमा तक मनुष्य की स्वभाविक सामाजिक प्रवृत्तियों का परिणाम कहा जा सकता है।

(3) धर्म(religion) रक्त संबंध की भांति धर्म का भी राज्य की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। राज्य के विकास कार्य में रक्त संबंध और धर्म परस्पर घनिष्ठ रूप से संबंधित रहे हैं। वस्तुत: प्रारंभिक समाज में रक्त संबंध और धर्म एक ही वस्तु के दो पहलू थे और दोनों परिवार तथा कबीलों को परस्पर जोड़ने का कार्य साथ साथ करते थे।

प्रारंभिक समाज में धर्म के दो रूप प्रचलित थे – पित्र पूजा और प्राकृतिक शक्तियों की पूजा। व्यक्ति अपने परिवार के वृद्ध व्यक्तियों की मौत हो जाने पर भी उनके प्रति बहुत श्रद्धा रखते थे और उनका विचार था कि शरीर के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा नष्ट नहीं होती है। अतः इस आत्मा को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने पित्र पूजा प्रारंभ कर दी। धर्म के इस बहु प्रचलित रूप ने परिवारों को एकता के सूत्र में बांधा। जो एक ही वंश या रक्त से संबंधित होते थे, उनके कुल देवता भी एक ही हुए, जो अधिकतर उनके पुरखे होते थे।

उस समय धर्म का एक दूसरा प्रचलित रूप प्राकृतिक शक्तियों की पूजा थी। ऐसी अवस्था में, जबकि बुद्धि का विकास नहीं हुआ था और व्यक्ति प्राकृतिक परिवर्तन को समझने में असमर्थ थे, उन्होंने बादल की गड़गड़ाहट, बिजली की कड़क, हवा की सनसनाहट और वस्तुओं के परिवर्तन में ईश्वर की शक्ति का अनुभव किया और प्रकृति की प्रत्येक शक्ति उनके लिए देवता बन गई। व्यक्ति पृथ्वी, सूर्य, अग्नि, इंद्र और वरुण की उपासना करने लगे और एक ही शक्ति के उपासकों में परस्पर घनिष्ठ मैत्री भाव उत्पन्न हुआ, जो राज्य का आधार बना।

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(4) शक्ति(force) राज्य संस्था के विकास में शक्ति या युद्ध का स्थान भी विशेष महत्वपूर्ण रहा। पहले सामाजिक व्यवस्था थी, जिसे राजनीतिक व्यवस्था में परिवर्तित करने का कार्य युद्ध के द्वारा किया गया।

अन्य मनुष्य पर आधिपत्य स्थापित करने तथा संघर्ष एवं आक्रमण की प्रवृत्ति भी मनुष्य की मूल प्रवृत्ति में से एक है। मानवीय विकास के प्रारंभिक काल में यह प्रवृत्तियां बहुत अधिक सक्रिय थी। कृषि तथा व्यवसाय की उन्नति के साथ जब लोग निश्चित स्थानों पर बस गए तो निजी संपत्ति की धारणा का उदय हुआ। ऐसी स्थिति में निवास स्थान तथा संपत्ति की रक्षा हेतु युद्ध होने लगे और युद्ध ने नेतृत्व के महत्व को जनता के सामने रखा। लोग सुरक्षा प्रदान करने की क्षमता रखने वाले शक्तिशाली व्यक्ति का नेतृत्व स्वीकार करने लगे। इस नेता की अधीनता में एक कबीला दूसरे कबीले पर आधिपत्य जमाने की चेष्टा में संलग्न रहा और संघर्ष की इस प्रक्रिया में विजयी कबीले का सैनिक सरदार राजा बन बैठा। बलपूर्वक शक्ति ने संप्रभुता का रूप धारण किया और शासक के प्रति भक्ति तथा निष्ठा की भावना का जन्म हुआ। इस प्रकार युद्ध से राज्य की उत्पत्ति हुई।

(5) आर्थिक गतिविधियां (economic activity) – राज्य की उत्पत्ति और विकास में आर्थिक गतिविधियों का भी प्रमुख हाथ रहा है। आदिकाल से लेकर अब तक मनुष्य चार आर्थिक अवस्थाओं से गुजरा है, जिसके अनुकूल हीं उसमें तत्कालीन सामाजिक तथा राजनीतिक संगठन रहे हैं। प्रथम, आखेट अवस्था में मनुष्य के जीवन का एकमात्र साधन शिकार था और इसी कारण मनुष्य का जीवन अस्थिर, असंगठित तथा भ्रमणशील था। द्वितीय, पशुपालन अवस्था में मनुष्य पशुपालन कर अपना गुजारा करते थे। इस अवस्था में भी उनका जीवन भ्रमणशील ही था किन्तु उनमें सामूहिकता और संगठन का अंश आ गया था। तृतीय, कृषि अवस्था में जीवन का आधार कृषि पर हो जाने के कारण मनुष्य एक निश्चित स्थान पर स्थाई रूप से रहने लगे। जिससे निजी संपत्ति का उदय हुआ, समाज में वर्ग पैदा हो गए और संघर्ष बढे। ऐसी स्थिति में कानून, न्यायालय और राजनीतिक सत्ता की स्थापना हुई। चतुर्थ, आज की औद्योगिक अवस्था है, जिसमें आर्थिक जीवन के जटिल और विशाल ढांचे ने राष्ट्रीय राज्यों को जन्म दिया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आर्थिक विकास के साथ मनुष्य के राजनीतिक संगठन में परिवर्तन हुए हैं और राज्य के विकास पर आर्थिक गतिविधियों के प्रभाव का स्पष्ट प्रमाण है।

(6) राजनीतिक चेतना (political consciousness) – राजनीतिक चिंतन का तात्पर्य उन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए चेतना है जिनके हेतु राज्य की स्थापना की जाती है। अनेक विद्वानों के अनुसार राज्य के विकास में राजनीतिक चेतना ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व के रूप में कार्य किया है।

जब व्यकि किसी निश्चित प्रदेश पर बस गए और उनके दारा अपनी आजीविका की स्थाई साधन प्राप्त कर लिए गए तो उनकी यह स्वभाविक इच्छा और चिंता हुई कि दूसरे लोग उनके साधनो को हड़प न लें। परिणामस्वरूप नियमों की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी और यही राजनीतिक चेतना का मूल था। प्रारंभ से यह राजनीतिक चेतना अप्रकाशित एवं अव्यक्त रूप में थी, सभ्यता के विकास के साथ-साथ यह प्रकाशित और व्यक्त होने लगी। शासन, अनुशासन, युद्ध आदि के लिए अब राजनीतिक संगठन की आवश्यकता और भी स्पष्ट हो गई। इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्तियों में शक्ति की आकांक्षा भी बढ़ी और सैनिक कार्यवाहियों द्वारा वे अधिकाधिक शक्ति की प्राप्ति करने लगे। युद्ध में विजयी नेता राजा हो गए और उनका प्रभुत्व स्थापित हो गया। वर्तमान समय में भी राजनीतिक चेतना राज्य के विकास में सक्रिय है और इसी चेतनावश मानव जाति द्वारा विश्व राज्य की स्थापना की दिशा में सोचा जाने लगा है।

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निष्कर्ष (conclusion) –

राज्य की उत्पत्ति के संबंध में ऐतिहासिक या विकासवादी सिद्धांत की सर्वाधिक मान्य है, जिसके अनुसार किसी एक तत्व के द्वारा नहीं वरन् मूल सामाजिक प्रवृत्ति, रक्त संबंध, धर्म, शक्ति, आर्थिक गतिविधियां और राजनीतिक चेतना सभी के द्वारा सामूहिक रूप से राज्य का विकास किया गया है। रक्त संबंध पर आधारित परिवार राज्य का सबसे प्राचीन रूप था, धर्म ने इन परिवारों को एकता प्रदान की और आर्थिक गतिविधियों ने व्यक्तियों को संगठित होने के लिए प्रेरित किया। इसके साथ ही शक्ति और राजनीतिक चेतना ने राज्य के रूप को स्पष्टता और व्यापकता प्रदान की। इस प्रकार राज्य का उदय हुआ और उसने विकास करते-करते अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त किया।

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