शक्ति सिद्धांत

शक्ति सिद्धांत (POWER THEORY)

 

परिचय –

 शक्ति सिद्धांत के अनुसार राज्य एक ईश्वरीय संस्था नहीं वरन् एक मानवीय संस्था है, जिसकी उत्पत्ति बल प्रयोग के आधार पर हुई है। बल प्रयोग ही राज्य की उत्पत्ति का कारण और वर्तमान समय में राज्य के अस्तित्व का आधार है। राज्य उच्च शक्ति का परिणाम है और इसकी उत्पत्ति शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा निर्बल व्यक्तियों को अपने अधीन करने की प्रवृत्ति से हुई है।

माननीय विकास के प्रारंभिक काल में जो व्यक्ति शक्तिशाली होता था वह अपनी शक्ति के प्रयोग द्वारा अन्य निर्बल व्यक्तियों को पराजित कर अपने अधीन कर लेता था। इस प्रकार अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाकर वह जनपद का नेता बन जाता था और तब वह अपने जनपद की सहायता से निर्बल जनपदों को अधीन करना प्रारंभ करता था। विजय तथा अधीनता की इस प्रक्रिया का अंत उस समय होता था जब बिजयी जनपद के पास अपना एक निश्चित प्रदेश हो जाता था। यही से राज्य की उत्पत्ति हुई।

 

शक्ति सिद्धांत का विकास – 

शक्ति सिद्धांत की मान्यता हमें अत्यंत प्राचीन काल से मिलती है। यूनान के सोफिस्ट विचारकों का यही मत था। इसी प्रकार प्लेटो की पुस्तक रिपब्लिक के थ्रेसीमेकस नामक पात्र ने कहा है कि “न्याय शक्तिशाली के हित के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।” मध्य काल में राज्य सत्ता और वैधता के बीच संघर्ष प्रारंभ हो जाने पर धर्मसत्ता के प्रतिपादक ईसाई धर्म प्रचारकों ने राज्य का विरोध करते हुए उसे पाशविक शक्ति का परिणाम बताया था।

वर्तमान समय में भी अनेक राजनीतिक विचारको द्वारा शक्ति सिद्धांत की पुष्टि की गई है। अराजकतावादी राज्य को शक्तिमूलक संस्था घोषित करते हुए राज्य के अंत का प्रतिपादन करते हैं। इसी प्रकार व्यक्तिवादी भी राज्य को शक्ति पर आधारित करते हैं और इसी कारण राज्य को एक आवश्यक बुराई के नाम से संबोधित करते हैं। अराजकतावादी और व्यक्ति गांधी की नहीं वरन साम्य वादी विचार को कभी मत है कि आज एक शक्ति मूलक संस्था है और उसका विकास पूंजीपति वर्ग द्वारा निर्धन वर्ग का शोषण करने से हुआ।

इन्हे भी पढ़े : राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धांत 

 

शक्ति सिद्धांत के मूल तत्व –

शक्ति सिद्धांत की व्याख्या और उसकी विकास की उपयुक्त विवेचना के आधार पर शक्ति सिद्धांत की कुछ तत्व स्वत: स्पष्ट हैं। यह तत्व संक्षेप में निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं-
(1) राज्य की उत्पत्ति का एकमात्र कारण शक्ति ही है। राज्य बलवाना द्वारा निर्मल ऊपर अधिकार और प्रभुत्व का परिणाम है।
(2) प्रकृति का यह शाश्वत नियम है कि शक्ति ही न्याय है।
(3) आज भी राज्यों की आंतरिक शक्ति और बाहरी सुरक्षा बल प्रयोग के आधार पर कायम रखी जाती है।
(4) इस प्रकार शक्ति सिद्धांत विजय के फलस्वरूप राज्य की उत्पत्ति को प्रकट करता है और ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ के सिद्धांत के अनुसार राज्य के अधिकारों को न्यायोचित ठहराता हैं।

 

शक्ति सिद्धांत की आलोचना-

इसमें संदेह नहीं की शक्ति ने राज्य की उत्पत्ति में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और वर्तमान राज्य के अस्तित्व के लिए शक्ति अनिवार्य है, लेकिन इस बात को स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि केवल शक्ति के प्रयोग से ही राज्य की उत्पत्ति संभव हो गई। इसी कारण अनेक आधारों पर शक्ति के सिद्धांत की आलोचना की जाती है, जिसमें निम्नलिखित प्रमुख है:

(1) केवल शक्ति से राज्य की उत्पत्ति संभव नहीं राज्य की उत्पत्ति केवल शक्ति से ही नहीं हुई और शक्ति ही राज्य का एकमात्र तत्व नहीं है। राज्य की उत्पत्ति के संबंध में रक्त संबंध , धार्मिक एकता , आर्थिक हितों और राजनीतिक चेतना ने भी शक्ति के समान महत्वपूर्ण कार्य किया है। सीले के शब्दों में “राज्य की उत्पत्ति के भक्ति के द्वारा नहीं हुई यद्यपि विस्तार क्रम में निःसंदेह शक्ति ने भाग लिया है।”

(2) शक्ति राज्य का स्थायी आधार नहीं हो सकता शक्ति को राज्य के आधार के रूप में इस कारण भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि शक्ति राज्य को आवश्यक दृढ़ता एवं स्थायित्व प्रदान नहीं कर सकती। स्थाई रूप से एक राज्य सहयोग की भावना पर ही आधारित हो सकता है और शक्ति कभी सहयोग की भावना जागृत नहीं कर सकती। सभी व्यक्ति राज्य की आज्ञा का पालन शक्ति के भय के कारण नहीं करते हैं वरन् इस कारण करते हैं कि सामाजिक व्यवस्था स्थापित करने का यही एकमात्र साधन है और इसी से व्यक्ति के चरित्र का विकास संभव है।

(3) व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अंत यदि व्यक्ति को राज्य का आधार मान लिया जाए तो ‘शक्ति ही सत्य है’ के दौर में व्यक्तियों की स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी और समाज के अधिकांश व्यक्ति स्वतंत्रता का उपभोग नहीं कर सकेंगे। औचित्यरहित शक्तिक्ती तो व्यक्तिगत स्वतंत्रता की विरोधी है और राज्य का आधार हो ही नहीं सकती, क्योंकि राज्य का अस्तित्व सबल और निर्बल सभी व्यक्तियों की स्वतंत्रता और हितों की रक्षा के लिए होता है।

(4) आंतरिक एवं अंतर्राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहन यदि शक्ति को राज्य का आधार मान लिया जाए तो प्रत्येक अपने आप को दूसरों की अपेक्षा शक्तिशाली सिद्ध करने में प्रयत्नशील रहेगा और निरंतर संघर्ष तो होते रहेंगे। अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में इस सिद्धांत को स्वीकार कर लेने पर प्रतीक विवाद की निर्णय हेतू युद्ध के मार्ग को अपनाया जाएगा और सदैव ही युद्ध की अवस्था बनी रहेगी। अंतः राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय शांति के हित में शक्ति सिद्धांत को स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

(5) प्रजातांत्रिक परंपरा के विरुद्ध शक्ति सिद्धांत के अनुसार राज्य का आधार शासन की इच्छा और शक्ति है, जनमत नहीं। लेकिन प्रजातंत्र जन इच्छा, न्याय, स्वतंत्रता और समानता में विश्वास करता है, अतः शक्ति सिद्धांत प्रजातांत्रिक परंपराओं और विश्व बंधुत्व की भावना के नितांत विपरीत है।

इन्हे भी पढ़े : राज्य की उत्पत्ति  का  सामाजिक समझौता सिद्धांत 

 

शक्ति सिद्धांत का महत्व –

शक्ति सिद्धांत इतनी अधिक आलोचना की जाने पर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता, कि राज्य की उत्पत्ति में शक्ति एक तत्व रहा है, और शक्ति वर्तमान समय में राज्य के अस्तित्व का एक प्रमुख आधार है। राजाज्ञा के प्रचलन में भी औचित्य पूर्ण शक्ति का बहुत अधिक भाग होता है और राज्य के विकास एवं संचालन में भी शक्ति की आवश्यकता पड़ती है यद्यपि इस शक्ति का प्रयोग उचित पूर्ण ढंग से जनसाधारण की हित में ही किया जाना चाहिए।

2 thoughts on “शक्ति सिद्धांत”

Leave a Reply to Anonymous Cancel Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *