रूसो का सामाजिक समझौता सिद्धांत

हालांकि रूसो का सामाजिक समझौता सिद्धांत हॉब्स और लॉक के समझौता सिद्धान्त के समान है लेकिन उसका उद्देश्य उनकी तरह व्यक्तिवाद और प्राकृतिक अधिकारों का समर्थन करना मात्र नहीं था। इनके विपरीत, रूसो समाज के नैतिक पतन के प्रति अत्यधिक चिन्तित था और चाहता था कि इस अभिशाप से मुक्त होकर मनुष्य का जीवन पुनः नैतिक दृष्टि से उच्च हो जाए। रूसो ने अपनी पुस्तक ‘द सोशल कान्ट्रेक्ट’ में अपने समझौता सिद्धान्त का विस्तार से प्रतिपादन किया है।

रूसो के सामाजिक समझौता संबंधी विचार को निम्न शीर्षकों में समझा जा सकता है-

(1) मानव स्वभाव

रूसो ने मनुष्य का चित्रण एक तनावग्रस्त व्यक्ति के रूप में किया है। इस तनावग्रस्त व्यक्ति की दो प्रवृत्तियां हैं- स्वहित और परोपकार। यह व्यक्ति हमेशा इस परेशानी मे रहता है कि वह स्वहित और परोपकार में किसे चुने। रूसो दो प्रकार के व्यक्ति का चित्र प्रस्तुत करता है- (i) अप्राकृतिक व्यक्ति, जिसमें स्वार्थ और परमार्थ युद्धरत हैं, जिसकी चेतना अन्धी है और विवेक पथभ्रष्ट है। ऐसा व्यक्ति लगातार भटकता रहता है, (ii) इसके विपरीत, प्राकृतिक मनुष्य वह है जिसमें या तो तनाव पैदा ही न हुआ हो या जिसने विवेक और चेतना के द्वारा स्वहित और परोपकार में सामंजस्य बिठा लिया हो।

रूसों के अनुसार आदिम मनुष्य एक ऐसा व्यक्ति था जिसमें यह तनाव पैदा ही नहीं हुआ था। वह प्रसन्न और सन्तुष्ट था। पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की तरह वह पैदा होकर प्राकृतिक रूप से ही समाप्त हो जाता था।

मानव स्वभाव के संबंध में रूसो का विचार हॉब्स तथा लॉक दोनों से ही भिन्न है। हॉब्स का कहना था कि प्राकृतिक दशा में रहने वाला मनुष्य न केवल हिंसक और क्रूर था, बल्कि कपटी भी था। दूसरी ओर लॉक ने मनुष्य को प्राकृतिक नियम और ईश्वरीय नियम से अनुशासित होने वाला माना था। रूसो प्राकृतिक दशा में नैतिकता के ऐसे उच्च विकास को भी असम्भव मानता है। अतः दोनों के विचारों को गलत मानते हुए रूसो ने आदिम मनुष्य को पशुतुल्य, निष्पाप, निर्दोष तथा स्वाभाविक रूप से अच्छा माना है।

(2) प्राकृतिक अवस्था

 रूसो के अनुसार प्राकृतिक अवस्था में मनुष्य का जीवन पशुओं जैसा व एकाकी था। वह अपना जीवन वनों में विचरण करके बिताता था। किसी व्यक्ति का कोई घर न था और न उसकी कोई सम्पत्ति थी। मनुष्य अपनी प्रकृति की सादगी और परमार्थ की भावना के साथ उसमें सादगी से रहता था। इस अवस्था में सब समान थे तथा अपने-अपने जीवन के स्वामी थे। कोई कलह, द्वेष, मारपीट नहीं थी। कोई सभ्यता नहीं थी तथा सभ्यता की आवश्यकता भी नहीं थी।

इस प्रकार रूसो के अनुसार प्राकृतिक मनुष्य एकाकी, स्वतन्त्र, नैतिक-अनैतिक भावनाओं से मुक्त, निःस्वार्थ, सम्पत्ति और परिवार से मुक्त आदिम स्वर्णयुग की स्वर्गीय दशा में रहता था। प्राकृतिक अवस्था के व्यक्ति के लिए रूसो आदर्श वर्बर (Noble Savage) शब्द का प्रयोग करता है। प्राकृतिक अवस्था में व्यक्ति एक भोले और अज्ञानी बालक की भांति सादगी और परमसुख का जीवन व्यतीत करता था।

रूसों के अनुसार प्राकृतिक अवस्था अनैतिक नहीं हो सकती है, इसे न सद्गुण की अवस्था कहा जा सकता है। यह धोखाधड़ी और युद्ध की अवस्था बिल्कुल ही नहीं थी क्योंकि अनैतिकता का बोध तब होता है जब मनुष्य में किसी उच्च गुण को समझने की क्षमता होती है। धोखाधड़ी करने की प्रवृत्ति भी तब जागती है जब उसमें हिसाबी बुद्धि का उदय होता है। जबकि यह प्राकृतिक अवस्था में थी ही नहीं।

(3) समझौते के कारण

 प्राकृतिक अवस्था ‘आदर्श अवस्था’ थी जहां मनुष्य का जीवन शान्तिपूर्ण और सुखी था, परन्तु यह स्वर्णिम अवस्था अधिक दिनों तक कायम न रह सकी। मानव के ज्ञान में वृद्धि हुई। लोगों का घुमक्कड़ जीवन छूट गया और वे निश्चित स्थान पर बसने लगे परिवार का जन्म हुआ। व्यक्तिगत सम्पत्ति की मान्यता के कारण लोगों में परस्पर कलह, द्वेष, हिंसा व युद्ध आदि का प्रादुर्भाव हुआ। इससे आदर्श वर्बर (Noble Savage) की स्वाभाविक समानता, स्वतन्त्रता समाप्त हो गई एवं दास प्रथा आदि बुराइयां उत्पन्न हुईं। व्यक्तिगत सम्पत्ति ने प्राकृतिक अवस्था की शान्ति भंग करके एक ऐसे सभ्य कहे जाने वाले समाज को जन्म दिया, जिसने मनुष्य से मनुष्य की सादगी, ईमानदारी, समानता, परमार्थ की भावना छीनकर उसे इंसानियत का दुश्मन, सम्पत्ति का भूखा, स्वार्थी, घमण्डी बना दिया।

रूसो के अनुसार सभ्यता की वृद्धि के साथ-साथ दरिद्रता, शोषण, हत्या और बीमारी बढ़ती चली गई। युद्ध और तनाव ने मनुष्य को हिंसक बना दिया जिससे समाज की वह दशा हो गई जो हॉब्स की प्राकृतिक अवस्था में थी।

रूसो के अनुसार सम्पत्ति के प्रादुर्भाव से मनुष्य की स्वतन्त्रता परतन्त्रता में बदल गई जिसको लक्ष्य करके वह कहता है कि “मनुष्य स्वतन्त्र उत्पन्न होता है, किन्तु सर्वत्र वह बेड़ियों से जकड़ा हुआ है।” इसका अभिप्राय यह है कि मनुष्य को स्वतन्त्र एवं स्वाधीन होना चाहिए, किन्तु समाज के नियम, रूढ़ियां तथा प्रतिबन्ध उसे दास बना रहे हैं, मनुष्य अपनी स्वतन्त्रता का उपभोग करने के लिए इन बन्धनों से किस प्रकार मुक्त हो, यह रूसो के राजनीतिक चिन्तन की मूल समस्या है।

रूसो का स्पष्ट मत है कि मनुष्य ने स्वयं ही अपनी खुशियों का, समानता, स्वतन्त्रता का गला घोटा है, परन्तु इन्हें दुबारा प्राप्त करना जरूरी हैं क्योंकि स्वतन्त्रता, समानता और प्रसन्नता के बिना जीवन व्यर्थ है। प्रश्न है कि इन्हें कैसे प्राप्त किया जाए? रूसो का उत्तर था-“प्रकृति की ओर चलो।” वह कहता था कि हमें “हमारा अज्ञान, हमारा भोलापन, हमारी गरीबी लौटा दो, हम स्वतन्त्र हो जाएंगे।” परंतु बाद में रूसो को इस बात का अंदाजा हो चुका था कि नागरिक समाज से प्राकृतिक अवस्था की ओर लौटना असम्भव है। अतः अब वह प्रकृति की ओर लौट चलने का आवाहन नहीं देता।

(4) सामाजिक समझौता तथा राज्य का स्वरूप

युद्ध और संघर्ष के वातावरण का अन्त करने के लिए रूसो एक सामाजिक समझौते की कल्पना करता है। रूसो के अनुसार मनुष्यों ने आपस में एक समझौता किया। इस समझौते में सभी व्यक्तियों ने भाग लिया। प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों को किसी व्यक्ति विशेष को अर्पित न कर सम्पूर्ण समाज को अर्पित करता है। इस प्रकार यह समझौता लोगों के निजी स्वरूप और सामूहिक स्वरूप के मध्य हुआ। इसमें किसी की हानि नहीं, वरन् सबका लाभ ही होता है क्योंकि जब उनमें से किसी एक के व्यक्तिगत अधिकारों पर आक्रमण होता है तो उसकी रक्षा के लिए सारा समाज उपस्थित हो जाता है।

सामाजिक समझौते द्वारा निर्मित ‘राज्य’ को ‘सामान्य इच्छा’ (General will) कहा जाता है। सम्प्रभुता की अभिव्यक्ति ‘सामान्य इच्छा’ में ही होती है। सभी व्यक्ति सामान्य इच्छा के अधीन रहते हुए कार्य करते हैं। प्रत्येक नागरिक का सम्प्रभुता में एक भाग होता है और साथ ही वह जानता भी है क्योंकि उसे उस कानून को मानना पड़ता है जिसे उसने स्वयं सम्प्रभु के रूप में बनाया है। इस प्रकार रूसो के दर्शन में हमें जनप्रिय सम्प्रभुता और लोकतन्त्रीय सरकार की आधारशिला मिलती है।

रूसो के समझौते सिद्धान्त की आलोचना

17वीं और 18वीं शताब्दी में सामाजिक समझौते का सिद्धान्त अत्यन्त लोकप्रिय रहा, परन्तु रूसो की मृत्यु के उपरान्त इसका पूर्णतः पतन हो गया। बेन्थम, सर फ्रेडरिक पोलक, वॉहन, एडमण्ड बर्क, आदि विद्वानों ने इस सिद्धान्त की कटु आलोचना की है। निम्न तर्कों के आधार पर इस सिद्धान्त की आलोचना की जा सकती है :

1. प्राकृतिक अवस्था काल्पनिक है: रूसो ने प्राकृतिक अवस्था का जो चित्र प्रस्तुत किया है वह निराधार एवं काल्पनिक है। ऐतिहासिक तथ्य यह किसी भी प्रकार प्रमाणित नहीं करते कि मनुष्य ऐसा शान्तिमय, सुखमय और आदर्श जीवन यापन कभी करते थे।

2. मानव स्वभाव का गलत अध्ययन: रूसो की प्राकृतिक अवस्था का चित्रण मानव स्वभाव की गलत धारणा पर बना है। उसका मत है कि मौलिक रूप से मनुष्य अच्छा और गुणी है। उसके समस्त दोष बाह्य परिस्थितियों द्वारा उत्पन्न हुए हैं। वास्तव में ऐसा नहीं है। निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि मनुष्य अच्छाई और बुराई का सम्मिश्रण है।

3. विचित्र विरोधाभास: रूसो के अनुसार यह समझौता व्यक्ति और समाज में होता है और दूसरी और रूसो यह बताता है कि समाज समझौते का परिणाम है। यह एक विरोधाभास है जो समझौते की धारणा को असंगत बनाता है। इसके अतिरिक्त रूसो के वर्णन में एक अन्य असंगति यह है कि कहीं तो वह समझौते को ऐतिहासिक घटना कहता है और कहीं उसे एक निरन्तर चलने वाला क्रम।

4. सामाजिक प्रगति के सिद्धान्त का विरोध: रूसो सामाजिक प्रगति के सिद्धान्त का विरोध करता है। उसकी यह मान्यता है कि जैसे जैसे समाज प्राकृतिक जीवन से दूर हुआ है वैसे-वैसे उसका पतन हुआ है, लेकिन यह बात तथ्यपूर्ण नहीं है। मानव जाति का आज तक का इतिहास उसकी प्रगति का इतिहास है। ज्ञान और विज्ञान दोनों के क्षेत्रों के विकास के जिन शिखरों को आज मनुष्य स्पर्श कर पाने में सफल हुआ है वैसा अतीत में कभी नहीं हुआ।

5. राज्य समझौते का नहीं, विकास का परिणाम है: रूसो की धारणा सरासर गलत है कि राज्य का जन्म किसी समझौते के कारण हुआ है। आज यह सिद्ध हो चुका है कि राज्य का किसी समय विशेष में जन्म नहीं हुआ वरन् उसका शनैः शनैः विकास हुआ है।

6. व्यक्ति को निरंकुशता के हवाले कर देना: रूसो के अनुसार समझौते के द्वारा व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण स्वतंत्रता और अधिकार समाज को सौंप देता है। अतः उसकी स्थिति स्वतंत्रता और समानताविहीन हो जाती है। रूसो इसकी सफाई यह कहकर देता है कि समाज का सदस्य होने के नाते व्यक्ति अपनी खोई हुई स्वतन्त्रता और अधिकार पुनः प्राप्त कर लेता है, किन्तु यह एक सैद्धान्तिक कथन मात्र है। वास्तविकता यह है कि रूसो ने व्यक्ति को पूर्णतः सामान्य इच्छा की निरंकुशता के हवाले कर दिया है।

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