न्याय का सिद्धांत-प्लेटो

 

न्याय का सिद्धांत (theory of justice)

 

ग्रीक राजनीतिक चिंतन के इतिहास में प्लेटो एक उच्च कोटि के आदर्शवादी राजनीतिक विचारक तथा नैतिकता के एक महान पुजारी थे। चूंकि सुकरात की मृत्यु से प्लेटो का ह्रदय लोकतंत्र से भर गया था। अतः अपनी न्याय धारणा के आधार पर प्लेटो एक शासनतंत्र की कल्पना करने लगा, जिसका संचालन श्रेष्ठ व्यक्तियों द्वारा होता हो। न्याय क्या है? प्लेटो की मुख्य समस्याएं रही है और इसी समस्या के समाधान के लिए 40 वर्ष की अवस्था में प्लेटो ने republic की रचना की, जिसका शीर्षक concerning justice या “न्याय के संबंध में है।”

प्लेटो ने आदर्श राज्य का निर्माण ही एक निश्चित उद्देश्य से किया और वह उद्देश्य एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना करना है जिसमें सभी वैयक्तिक , सामाजिक एवं राजनीतिक संस्थाएं न्याय से अनुप्राणित हो। प्लेटो ने आलोचक व दार्शनिक दोनों के रूप में कार्य किया है क्योंकि अपने से पूर्ववर्ति विचारकों के न्याय संबंधी विचारों की आलोचना करते हुए उसने न्याय के अपने सिद्धांत का प्रतिपादन किया है।

प्लेटो न्याय को केवल नियमों के पालन तक सीमित नहीं मानता था , क्योंकि न्याय मानव आत्मा की अंतःप्रकृति पर आधारित है। यह दुर्बल के ऊपर सबल की विजय नहीं है, क्योंकि यह तो दुर्बल की सबल से रक्षा करता है। प्लेटो के अनुसार एक न्यायोचित राज्य सभी की अच्छाई की ओर ध्यान रखकर प्राप्त किया जा सकता है। एक न्यायोचित समाज में शासक , सैन्य वर्ग तथा उत्पादक वर्ग सभी वह करते हैं जो उन्हें करना चाहिए। इस प्रकार के समाज में शासक बुद्धिमान होते हैं, सैनिक बहादुर होते हैं, और उत्पादक आत्मनियंत्रण या संयम का पालन करते हैं।

 सुकरात के माध्यम से इन विचारों को व्यक्त करने से पूर्व प्लेटो ने उस समय विद्यमान न्याय के प्रचलित सिद्धांतों का खंडन किया। तत्कालीन समय में मुख्य रूप से तीन न्याय के सिद्धांत प्रचलित थे-
1.परंपरागत सिद्धांत इस सिद्धांत के प्रवर्तक सिफालस तथा उसका पुत्र पोलिमार्कस था। सिफालस के अनुसार “सत्य बोलना तथा कर्ज को झुका देना ही न्याय है।”
पोलिमार्कस के अनुसार “मित्र के साथ अच्छा व्यवहार तथा शत्रु के साथ बुरा व्यवहार करने की कला न्याय है।”

प्लेटो ने न्याय की कुछ के लिए अच्छे और कुछ के लिए बुरे होने का समर्थन नहीं किया। उसने कहा न्याय वह है जो सबके लिए अच्छा हो, देने वाले के लिए भी और लेने वाले के लिए भी, मित्र के साथ साथ शत्रु के लिए भी।

2.क्रांतिकारी सिद्धांत इसके प्रतिपादक थ्रैसीमेकस है। थ्रैसी के अनुसार ‘न्याय बलवानो  के स्वार्थ सिद्धि का साधन है।’ राज्य अपने हित के लिए कानून बनाता है। राज्य उस कानून को शक्ति के माध्यम से लागू करता है। एक व्यक्ति के दृष्टिकोण से समझदार व्यक्ति अपने को सुखी एवं संतुष्ट रखना चाहता है। उसके अनुसार इस तरह का आचरण ही उसके लिए न्याय है। इस प्रकार जो राज्य की दृष्टि में न्याय है वह व्यक्ति की दृष्टि से अन्याय है।

प्लेटो ने थ्रैसीमेकस की न्याय की उस परिवर्तनवादी धारणाओं को भी अस्वीकृत कर दिया जिसके अनुसार न्याय सदैव शक्तिशाली के पक्ष में होता है। वह थ्रैसीमेकस से यहां तक सहमत था कि चूंकि शासक शासन की कला को जानता है इसलिए उसे सारी शक्ति प्राप्त होती है, किंतु वह इससे सहमत नहीं था कि शासक अपने हित के लिए शासन करता है। प्लेटो ने सुकरात के माध्यम से तर्क प्रस्तुत किया कि जूता बनाने वाला स्वयं अपने बनाए हुए सभी जूतों को नहीं पहनता, किसान पैदा की हुई अपनी सारी फसल को नहीं खाता, उसी प्रकार शासक भी वहीं सारे नियम नहीं बनाता जिससे सिर्फ उसी को लाभ हो।

3.व्यावहारिक सिद्धांत इस सिद्धांत के प्रवर्तक ग्लूकांन(Gloucon) हैं। उनके अनुसार प्राकृतिक अवस्था में कमजोर लोगों की हालत बहुत दयनीय थी। उनको अनेक प्रकार के कष्ट सहने पड़ते थे। अतः उन्होंने इस स्थिति को समाप्त करने के लिए एक समझौता किया। यह समझौता इस उद्देश्य से किया गया कि अब हम ना तो अत्याचार करेंगे और न ही अत्याचार करने देंगे। इस प्रकार कमजोर लोगों ने अपने हित के लिए न्याय का विकास किया।

प्लेटो इस सिद्धांत से भी असहमत होते हैं। उनका मानना है कि मन मनुष्य का बाहरी तत्व नहीं बल्कि एक आंतरिक तत्व है। अतः मनुष्य राज्य के नियमों का पालन राज्य के डर से नहीं बल्कि स्वाभाविक रूप से करता है क्योंकि वह राज्य के नियमों का पालन करना अपना कर्तव्य समझता है।

 

प्लेटो की न्याय की अवधारणा(Plato’s concept of justice)

प्लेटो न्याय को मनुष्य आत्मा का एक अनिवार्य गुण मानता है तथा मनुष्य और राज्य में साम्य दिखाने के लिए यह प्रतिपादित करता है कि राज्य व्यक्ति का ही वृहत् रूप है। अतः राज्य के गुण और व्यक्ति के गुण समान हैं। व्यक्ति के तीन प्रमुख गुण होते हैं तृष्णा(appetite), शौर्य(spirit) तथा विवेक(reason)। इसी तरह राज्य में भी तीन वर्ग प्रमुख होते हैं – तृष्णा का प्रतिनिधित्व करने वाला उत्पादक वर्ग, शौर्य का प्रतिनिधित्व करने वाला सैनिक वर्ग और विवेक का प्रतिनिधित्व करने वाला संरक्षक या शासक वर्ग। अतः जिस तरह तृष्णा, शौर्य और विवेक का उचित समन्वय व्यक्ति में न्याय की सृष्टि करता है, उसी तरह राज्य में उत्पादक वर्ग सैनिक वर्ग और शासक वर्ग में उचित समन्वय न्याय की अवस्था की सृष्टि करता है।

न्याय सिद्धांत की विशेषताएं

1. त्रिगुण आधारित व्यक्ति एवं राज्य प्रत्येक व्यक्ति में तीन नैसर्गिक गुण होते हैं- विवेक या ज्ञान, साहस या शौर्य तथा तृष्णा या क्षुधा। राज्य भी ,जो व्यक्ति का विराट रूप है, इन्हीं गुणों को परिवेक्षित करता है। ज्ञानवान शासक वर्ग का, शौर्यवान सैनिक वर्ग का तथा तृष्णायुक्त वर्ग उत्पादक वर्ग का निर्माण करते हैं। इन तीनों वर्गों में सुंदर समन्वय ही न्याय की सृष्टि करता है और राज्य को आदर्श रूप प्रदान करता है।

2. कार्य विशेषीकरण का सिद्धांत समाज में विद्यमान ये तीनों वर्ग जब अपने अपने प्राकृतिक गुण के अनुसार निष्ठापूर्वक अपना अपना कार्य करते हैं और अन्य लोगों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते हैं तो वह कार्यकुशलता को ही प्राप्त नहीं करते हैं बल्कि एक समरसतापूर्ण और एकताबद्ध राज्य का निर्माण भी करते हैं।

3. नैतिक सिद्धांत प्लेटो का न्याय सिद्धांत आधुनिक युग की तरह वैधानिक नहीं है बल्कि पूर्णतः नैतिक है। यह सार्वलौकिक न्याय की स्थापना करता है, सिर्फ वैधानिक न्याय की नहीं। यह मानव की पूर्ण नैतिक कर्तव्य की व्याख्या करता है, सिर्फ उसके कानूनी कर्तव्यों की नहीं अर्थात् प्लेटो की न्याय की परिकल्पना पूर्णतया आत्मिक है वह मात्र अवैधानिक नहीं है।

4. व्यक्तिवाद विरोधी प्लेटो व्यक्तिवादी नहीं समष्टीवादी है। अपनी इस अवधारणा के आधार पर वह यह प्रतिपादित करता है कि व्यक्ति का अपने आप में कोई महत्व नहीं है। उसका महत्व समस्टी अर्थात् समाज के सदस्य होने में ही निहित है तथा उसी रूप में वह अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करने में सक्षम होता है।

5. आंगिक एकता का सिद्धांत प्लेटो का न्याय सिद्धांत व्यक्ति और राज्य के मध्य आंगिक एकता का प्रतिपादन करता है। राज्य शरीर है और विभिन्न व्यक्ति और उनके वर्ग राज्य के विभिन्न अंगों का निर्माण करते हैं। उसमें शरीर की तरह ही आंगिक एकता है। जैसे शरीर से पृथक् उसके अंगों की कल्पना नहीं की जा सकती, उसी तरह बिना राज्य के व्यक्ति के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती।

6. दार्शनिक शासक प्लेटो के न्याय सिद्धांत के कार्यान्वयन का दार्शनिक शासक एक स्वाभाविक परिणाम है, क्योंकि वह ही कंचन और कामिनी के मोह से मुक्त होकर पूर्ण निस्वार्थ भाव से राज्य शासन का विवेकपूर्ण ढंग से संचालन करता है। दार्शनिक शासक का शासन ज्ञान का शासन या ज्ञान की संप्रभुता का शासन है, वह राज्य को आदर्श रूप प्रदान ही नहीं करता है बल्कि उसे अनवरत बनाए भी रखता है।

न्याय सिद्धांत की आलोचना

1. न्याय सिद्धांत नैतिक है, वैधानिक नहीं प्लेटो का न्याय सिद्धांत नैतिक चरित्र का है, आधुनिक युग की तरह वैधानिक चरित्र का नहीं। यह विधि से उत्पन्न नहीं होता है बल्कि प्रत्येक व्यक्ति द्वारा अपने नैसर्गिक कर्तव्य पालन से उत्पन्न होता है। यह भावना मात्र है, कानून नहीं। जबकि वास्तविक दृष्टि से यह दोनों अलग-अलग वस्तुएं हैं।

2. अधिकार दंड की व्यवस्था नहीं प्लेटो द्वारा प्रतिपादित न्याय सिद्धांत में वर्तमान समय की तरह व्यक्ति के अधिकारों तथा उनका उल्लंघन होने पर दंड की कोई व्यवस्था नहीं है। प्लेटो व्यक्ति की कर्तव्य निर्वाह की बात तो करता है तथा साथ ही उनके संबंध में अहस्तक्षेप की नीति का भी समर्थन करता है लेकिन यदि किसी के द्वारा अन्य व्यक्ति के कार्यों में हस्तक्षेप किया जाता है तो वैधानिक दृष्टि से उसे रोकने की कोई व्यवस्था नहीं करता है और न उल्लंघन हेतु दंड की व्यवस्था करता है।

3. निरंकुशता किसी भी रूप में समर्थन योग्य नहीं प्लेटो जिस न्याय आधारित आदर्श राज्य की कल्पना करता है उसमें दार्शनिक शासक पर ज्ञान या विवेक के अतिरिक्त उसकी निरंकुशता पर और कोई प्रतिबंध नहीं है। जैसा कि हमारा अनुभव बताता है – शासकीय निरंकुशता अपनी अप्रतिबंधता के कारण हमेशा भ्रष्टाचार और अत्याचार का कारण सिद्ध होती है।

4. लोकतंत्र विरोधी प्लेटो के आदर्श राज्य में बहुसंख्यक उत्पादक वर्ग सभी तरह के अधिकारों से वंचित है तथा शासन सत्ता संरक्षक वर्ग, जो कि एक अल्प संरक्षक वर्ग है, के हाथों में केंद्रित है। लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुसार बहुसंख्यक पर अल्पसंख्यक वर्ग के शासन का समर्थन न तो उचित और न ही न्यायसंगत ठहराया जा सकता है।

5. वर्तमान में उपयोगी नहीं प्लेटो का सारा राजनीतिक चिंतन नगर राज्यों के संदर्भ में है। आज नगर राज्य इतिहास की एक वस्तु बन गए हैं तथा उनका स्थान विशाल आकार वाले राष्ट्रीय राज्यों ने ले लिया है। चीन की जनसंख्या करोड़ों में होती है। इतनी बड़ी जनसंख्या को व्यक्तिगत गुणों के आधार पर विभाजित करना संभव है और ना उस आधार पर उनके कर्तव्य का निर्धारण। अतः प्लेटो के न्याय आधारित आदर्श राज्य का सिद्धांत समयानुकूल नहीं होने के कारण न उपयोगी है और न व्यावहारिक।

3 thoughts on “न्याय का सिद्धांत-प्लेटो”

    1. its a plato’s justice theory. tell us topic whatever you want. if there is available we will send to you

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