शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत

                  CONTENT:

  1. परिचय
  2. सिद्धांत की पृष्ठभूमि
  3. माॅण्टेस्क्यू
  4. सिद्धांत का प्रभाव
  5. सिद्धांत के पक्ष में तर्क
  6. सिद्धांत की आलोचना

परिचय शक्ति पृथक्करण का सिद्धांत इस विचार पर आधारित है कि निरंकुश शक्तियों के मिल जाने से व्यक्ति भ्रस्ट हो जाते हैं और अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने लगते हैं। शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का आशय है कि व्यवस्थापन, शासन तथा न्याय से संबंधित शक्तियां प्रथक प्रथक हाथों में रहे, इनसे संबंधित विभाग अपने क्षेत्रों में पूर्ण स्वतंत्र हो तथा कोई भी विभाग एक दूसरे विभाग की शक्ति और अधिकारों में हस्तक्षेप न करें।

सिद्धांत की पृष्ठभूमि इस सिद्धांत से संबंधित आधारभूत विचार नवीन नहीं है। राजनीतिशास्त्र के जनक अरस्तु ने सरकार को असेंबली, मजिस्ट्रेसी तथा जुडीसियरी नामक तीन विभागों में बांटा था, जिनसे आधुनिक व्यवस्था का शासन तथा न्याय विभाग का पता चलता है। 16वीं सदी के विचारक जीन बोंदा ने स्पष्ट कहा है कि राजा को कानून निर्माता तथा न्यायाधीश दोनों रूपों में एक साथ कार्य नहीं करना चाहिए। लाॅक के द्वारा भी इसी प्रकार का विचार व्यक्त किया गया है।

माॅण्टेस्क्यू –  माॅण्टेस्क्यू के पूर्व अनेक विद्वानों ने इस प्रकार के विचार प्रकट किए थे, किंतु विधिवत् और वैज्ञानिक रूप में इस सिद्धांत के प्रतिपादन का कार्य फ्रांसीसी विचारक मांटेग्यू के द्वारा ही किया गया। माॅण्टेस्क्यू उस लुई चौदहवें का समकालीन था, जो कहा करता था कि मैं ही राज्य हूं ( I am the state) और जिसके समय में राजा की इच्छा ही कानून के रूप में मान्य थी। माॅण्टेस्क्यू किसी कार्यवश इंग्लैंड गया। इंग्लैंड की तत्कालीन सीमित राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था को देखकर माॅण्टेस्क्यू इस निर्णय पर पहुंचा कि इंग्लैंड में राज्य शक्ति सम्राट के हाथों में केंद्रित नहीं है, वरन उसका विभाजन हो गया है और इंग्लैंड की शासन व्यवस्था की उत्तमता का यही रहस्य है। इसी आधार पर उसने स्वदेश लौटकर 1762 में प्रकाशित अपनी पुस्तक स्पिरिट ऑफ लॉज ( spirit of laws ) में शासन शक्ति के पृथक्करण सिद्धांत का प्रतिपादन किया।

माॅण्टेस्क्यू के अनुसार “प्रत्येक सरकार में तीन प्रकार की शक्तियां होती हैं – व्यवस्थापन संबंधी, शासन संबंधी तथा न्याय संबंधी। यदि व्यवस्थापिका और कार्यपालिका की शक्तियां एक ही हाथों में केंद्रित हो जाए, तो कोई स्वतंत्रता नहीं रह सकती है, क्योंकि इस बात का भय उत्पन्न हो जाता है कि कहीं राजा और सीनेट अत्याचारी कानून न बनाएं और उन्हें अत्याचारी ढंग से लागू न करें। इसी तरह से यदि न्याय संबंधी शक्ति को व्यवस्थापिका है या कार्यपालिका शक्ति से पृथक नहीं किया गया तो भी स्वतंत्रता संभव नहीं हो सकती। यदि न्याय शक्ति व्यवस्थापन शक्ति के साथ जोड़ दी जाएगी, तो प्रजा के जीवन और उसकी स्वतंत्रता को स्वेच्छाचारी नियंत्रण का शिकार होना पड़ेगा, क्योंकि उस दशा में न्याय कर्ता ही कानून निर्माता भी हो जाएगा। यदि न्याय को कार्यपालिका के साथ जोड़ दिया जाएगा, तो न्याय कर्ता का व्यवहार हिंसक एवं अत्याचारी हो जाएगा। यदि एक ही व्यक्ति या समुदाय तीनों काम करने लगे अर्थात् कानून बनाए, उन्हें लागू करें और विवादों का निर्णय करने लगे, तो स्वतंत्रता बिल्कुल नष्ट हो जाएगी और राज्य अपनी मनमानी करने लगेगा।”

ब्रिटिश विचारक ब्लैकस्टोन के द्वारा भी ‘commentries on the laws of England’ में इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए गए हैं। अमेरिकी संविधान सभा के सदस्य भी माॅण्टेस्क्यू की विचारधारा से प्रभावित थे और मेडिसन ने लिखा है कि “व्यवस्थापन, प्रशासन और न्याय… इन सभी शक्तियों का एकीकरण ही अत्याचारी शासन कहा जा सकता है।” इस प्रकार शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का आशय यह है कि शक्तियों के एकत्रीकरण से सार्वजनिक स्वतंत्रता का हनन होता है। अतः राजशक्ति का पृथक्करण अति आवश्यक है।

 

सिद्धांत का प्रभाव

शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का तत्कालीन राजनीति पर बहुत प्रभाव पड़ा। अमेरिकी संविधाननिर्माता इस सिद्धांत से बहुत प्रभावित थे और इसी कारण उन्होंने अध्यक्षात्मक शासन व्यवस्था को अपनाया था। इसी प्रकार मैक्सिको, अर्जेंटीना, ब्राज़ील, ऑस्ट्रिया आदि अनेक देशों के संविधान में भी इसको मान्यता प्रदान की गई है। इस सिद्धांत का प्रभाव “फ्रांस के मनुष्यों के अधिकारों की घोषणा” पर भी पड़ा, जिसकी 16वीं धारा में यह कहा गया है कि शक्ति विभाजन के बिना कोई सरकार वैधानिक अथवा प्रजातंत्रात्मक नहीं हो सकती। फ्रांस में कार्यपालिका को न्यायपालिका से अलग करने की दृष्टि से ही प्रशासकीय न्यायालयों की स्थापना की गई।

सिद्धांत के पक्ष में तर्क इस सिद्धांत के पक्ष में प्रमुख रूप से निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं –

(1) निरंकुशता और अत्याचार से रक्षा का तर्क विधानमंडल तथा कार्यपालिका की शक्तियों का विभाजन इसलिए आवश्यक है कि उनके एक ही व्यक्ति के हाथ में आ जाने का परिणाम होगा – मनमाने कानूनों का निर्माण और उनकी मनमाने तरीके से क्रियान्विति। न्यायपालिका तथा विधानमंडल की शक्तियों का पृथक्करण इसलिए भी आवश्यक है कि मनमानी कानून न बनायें जाये और उनकी मनमानी व्यवस्थाएं न की जाये। कार्यपालिका तथा न्यायपालिका की शक्तियों को मिला देने से न्याय व्यवस्था पूरी तरह समाप्त हो सकती है।

मांटेस्क्यू का कथन है कि यदि तीनों शक्तियों को एक ही व्यक्ति या संस्था में केंद्रित कर दिया जाए तो न्याय, स्वतंत्रता और व्यवस्था तीनों समाप्त हो जाएंगे और शक्तियों के केंद्रीकरण के परिणामस्वरुप एक पूर्ण निरंकुश और अत्याचारी शासन स्थापित हो जाएगा। इसी प्रकार निरंकुशता और अत्याचार से रक्षा करने के लिए शक्ति विभाजन सिद्धांत को अपनाना अति आवश्यक है।

(2) विभिन्न योग्यताओं का तर्क शक्ति पृथक्करण सिद्धांत को अपनाना इसलिए भी आवश्यक और उपयोगी है कि सरकार से संबंधित विभिन्न कार्यों को करने के लिए अलग-अलग प्रकार की योग्यताओं की आवश्यकता होती है। इस बात की बहुत अधिक आशंका है कि एक श्रेष्ठ और सफल कानून निर्माता असफल न्यायाधीश और सफल न्यायाधीश एक असफल कानून निर्माता या प्रशासक सिद्ध होगा। कानून निर्माता के लिए व्यापक दृष्टिकोण और दूरदर्शिता की आवश्यकता होती है। प्रशासनिक कार्य के लिए सहज विवेक, तुरंत बुद्धि, कार्यकुशलता, दृढ़ता और निर्भयता की आवश्यकता होती है। उचित न्याय व्यवस्था के लिए निष्पक्ष, स्थिर चित्तवान और सत्य असत्य में भेद करने की दृष्टि से संपन्न व्यक्ति होने चाहिए। जब अलग अलग कार्यों को उचित रूप से संपन्न करने के लिए अलग-अलग प्रकार की योग्यताओं की आवश्यकता होती है ,तो स्वाभाविक रूप से इन कार्य को उचित रूप में संपन्न करने के लिए एक दूसरे से पृथक रूप में अलग-अलग विभागों की व्यवस्था होनी चाहिए।

(3) कार्य विभाजन से उत्पन्न लाभ का तर्क वर्तमान समय में सरकार के कार्य बहुत अधिक बढ़ गए हैं और किसी एक ही सत्ता से इस बात की आशा नहीं की जानी चाहिए कि वह इन सभी को सफलतापूर्वक संपन्न कर सकेगी। ऐसी स्थिति में सरकार के तीन अलग-अलग विभाग हों और सरकार के तीनों अंगों में कार्यों और शक्तियों का विभाजन कर दिया जाए, तो सरकार का समस्त कार्य श्रेष्ठ रूप से संपन्न हो सकेगा।

(4) न्याय की निष्पक्षता का तर्क शक्ति पृथक्करण सिद्धांत को अपनाने पर न्यायपालिका पर व्यवस्थापिका या कार्यपालिका दबाव नहीं होगा और ऐसी स्थिति में निष्पक्ष तथा स्वतंत्र न्याय की आशा की जा सकती है। इस सिद्धांत के अभाव में न्यायपालिका निष्पक्षता और स्वतंत्रतापूर्वक कार्य नहीं कर सकेगी।

 

सिद्धांत की आलोचना

 यद्यपि तत्कालीन राजनीति पर शक्ति पृथक्करण सिद्धांत का पर्याप्त प्रभाव पड़ा, लेकिन तर्क और अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि शक्ति पृथक्करण सिद्धांत अनेक दृष्टि से त्रुटीपूर्ण है।शक्ति पृथक्करण सिद्धांत की आलोचना प्रमुख रूप से निम्नलिखित आधारों पर की जाती है:

(1) ऐतिहासिक दृष्टि से गलत मांटेस्क्यू के अनुसार उसने अपने सिद्धांत का प्रतिपादन इंग्लैंड की तत्कालीन शासन पद्धति के आधार पर किया है, लेकिन इंग्लैंड की शासन व्यवस्था कभी भी शक्ति पृथक्करण सिद्धांत पर आधारित नहीं रही है। मांटेस्क्यू के समय के पूर्व से लेकर आज तक इंग्लैंड में संसदात्मक शासन व्यवस्था प्रचलित रही है और शासन व्यवस्था व्यवस्थापिका और कार्यपालिका के परस्पर घनिष्ठ संबंध और सहयोग पर ही आश्रित है। अतः यह कहा जा सकता है कि यह सिद्धांत का ऐतिहासिक आधार त्रुटिपूर्ण है।

(2) शक्तियों का पूर्ण पृथक्करण संभव नहीं आलोचकों का कथन है कि सरकार एक आंगिक एकता है, उसी प्रकार की स्थिति शासन के अंगों की है। इसलिए शासन के अंगो का पूर्ण व कठोर पृथक्करण व्यवहार में संभव नहीं है।

शक्ति पृथक्करण सिद्धांत की अव्यावहारिकता इस बात से भी स्पष्ट होती है कि यद्यपि अमेरिकी संविधान निर्माता शक्ति पृथक्करण सिद्धांत से बहुत अधिक प्रभावित थे, लेकिन वहां पर भी यह संभव नहीं हो सका है कि सरकार का प्रत्येक अंग दूसरे अंगों से पूर्णतया पृथक्क रहकर अपना कार्य कर सकें। अमेरिकी संघीय व्यवस्थापिका अर्थात् कांग्रेश कानूनों का निर्माण करने के साथ-साथ राष्ट्रपति द्वारा दी गई नियुक्तियों और संधियों पर नियंत्रण रखती है और महाभियोग लगाने का न्यायिक कार्य भी कर सकती है। इसी प्रकार कार्यपालिका के प्रधान राष्ट्रपति को कानूनों के संबंध में निषेध अधिकार और न्याय क्षेत्र में न्यायाधीशों की नियुक्ति करने एवं क्षमादान का अधिकार प्राप्त है।

(3) शक्ति पृथक्करण अवांछनीय भी है शक्ति पृथक्करण सिद्धांत को अपनाना न केवल असंभव वरन् अवांछनीय भी है। व्यवस्थापिका कानून निर्माण का कार्य तथा कार्यपालिका प्रशासन का कार्य ठीक प्रकार से कर सके इसके लिए दोनों अंगों के बीच पारस्परिक सहयोग अति आवश्यक है। कानून निर्माण का कार्य इतना जटिल हो गया है कि इस संबंध में आवश्यक ज्ञान उन्हीं लोगों को होता है जो शासन विभाग से संबंध होते हैं। अतः उचित कानूनों के निर्माण हेतु व्यवस्थापिका को कार्यपालिका का सहयोग नितांत आवश्यक है। इसी प्रकार शासन का कार्य कार्यपालिका द्वारा किया जाता है लेकिन जनता से निकट संपर्क के कारण जनता के विचारों और आवश्यकताओं से व्यवस्थापिका के सदस्य ही अधिक अच्छे प्रकार से परिचित होते हैं। ऐसी स्थिति में यदि व्यवस्थापिका कार्यपालिका से सहयोग न करें तो प्रशासन को जनहितकारी रूप प्रदान नहीं किया जा सकेगा।

(4) न्यायपालिका की कुशलता और निष्पक्षता का अंत यदि इस सिद्धांत को कठोरता से अपनाया जाये तो यह सिद्धांत न्यायपालिका की कार्यकुशलता और निष्पक्षता का अंत कर देगा। इस सिद्धांत को स्वीकार कर लेने पर न्यायाधीशों की नियुक्ति न तो कार्यपालिका द्वारा होगी और न ही व्यवस्थापिका द्वारा निर्वाचित होंगे, बल्कि वे जनता द्वारा चुने जाएंगे। जनता द्वारा निर्वाचित न्यायाधीश अयोग्य तथा पक्षपातपूर्ण प्रमाणित हुए हैं। वे तर्क और न्याय भावना के स्थान पर पक्षपात तथा दलीय भावना के आधार पर कार्य करेंगे।

(5) सरकार के तीनों अंगों की असामान्य स्थिति शक्ति पृथक्करण सिद्धांत इस मान्यता पर आधारित है कि सरकार के तीनो विभाग समान रूप से शक्तिशाली और महत्वपूर्ण हैं, किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। सरकार के तीनों अंगों में कार्यपालिका और न्यायपालिका की अपेक्षा व्यवस्थापिका अधिक महत्वपूर्ण स्थिति रखती है। व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित कानूनों के आधार पर ही प्रशासन किया जाता है और इन्हीं कानूनों के आधार पर न्यायपालिका न्याय प्रदान करने का कार्य करती है।

 

निष्कर्ष शक्ति विभाजन सिद्धांत की इन आलोचनाओं के कारण इसे महत्वहीन नहीं कहा जा सकता। शक्ति विभाजन सिद्धांत का अर्थ यदि यह लिया जाए कि तीनों विभागों द्वारा एक-दूसरे से कोई भी संबंध नहीं रखा जाना चाहिए, तो इस अर्थ में शक्ति विभाजन सिद्धांत को अपनाना संभव नहीं है, लेकिन यदि शक्ति विभाजन का आशय यह लिया जाए कि सरकार के तीन अंगों को एक दूसरे के क्षेत्र में अनुचित हस्तक्षेप से बचते हुए अपनी सीमा में रहना चाहिए, तो इस रूप में शक्ति विभाजन सिद्धांत को अपनाना न केवल उपयोगी वरन् आवश्यक भी है। संभवतः मांटेस्क्यू इस सिद्धांत के आधार पर यही चाहता था। शक्ति विभाजन सिद्धांत इसी रूप में अपनाया जा सकता है और उसे इसी रूप में अपनाया जाना चाहिए।

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