व्यवहारवाद

व्यवहारवाद (BEHAVIOURALISM)

 

                       CONTENT

  • परिचय
  • व्यवहारवाद का विकास
  • व्यवहारवाद का स्वरूप और व्याख्या
  • व्यवहारवाद की उपयोगिता या प्रभाव
  • व्यवहारवाद की आलोचना

 

परिचय –

व्यवहारवाद या व्यवहारवादी उपागम राजनीतिक तथ्यों की व्याख्या और विश्लेषण करने का एक विशेष तरीका है, जिसे द्वितीय महायुद्ध के बाद अमेरिकी वैज्ञानिकों द्वारा विकसित किया गया, यद्यपि इसकी जड़ें प्रथम विश्व युद्ध के भी पूर्व ग्राहम वालस और बेंटले आदि की रचनाओं में देखी जा सकती है। यह उपागम राजनीति विज्ञान के संदर्भ में मुख्यतः अपना ध्यान राजनीतिक व्यवहार पर केंद्रित करता है और इस बात का प्रतिपादन करता है कि राजनीतिक गतिविधियों का वैज्ञानिक अध्ययन व्यक्तियों के राजनीतिक व्यवहार के आधार पर ही किया जा सकता है। व्यवहारवाद अनुभवात्मक (empirical) और क्रियात्मक है तथा इसमें व्यक्तिनिष्ठ मूल्यों और कल्पनाओं आदि के लिए कोई स्थान नहीं है। व्यवहारवाद के अनुसार राज्य के बाहर भी सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र की जो संस्थाएं और सत्तायें और इन सबको प्रेरित करने वाला जो मानसिक व्यवहार है, उसका अध्ययन अधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण है। राबर्ट ए. डहल के अनुसार “व्यवहारवादी क्रांति परंपरागत राजनीति विज्ञान की उपलब्धियों के प्रति असंतोष का परिणाम है, जिसका उद्देश्य राजनीति विज्ञान को अधिक वैज्ञानिक बनाना है।”

 

व्यवहारवाद का विकास –

व्यवहारवाद का ऐतिहासिक विकास संयुक्त राज्य अमेरिका में राजनीति विज्ञान के यथार्थवादी एवं अनुभवादी अध्ययनों के साथ जुड़ा हुआ है। इसका प्रारंभ 1908 में ग्राहम वालस की human nature in politics ए. एफ. बेंटले की the process of government पुस्तकों से हुआ। इसके बाद 1925 में प्रकाशित चार्ल्स मेरियम की रचना new aspects of politics को व्यवहारवाद की दिशा में एक महत्वपूर्ण चरण कहा जा सकता है। अमेरिका में मेरियम की प्रेरणा से यथार्थवादी एवं परिमाणात्मक अध्ययन किए गए और सुप्रसिद्ध ‘शिकागो संप्रदाय’ व्यवहारवाद का प्रमुख गढ़ बन गया। नव स्थापित पॉलीटिकल साइंस एसोसिएशन और सोशल साइंस रिसर्च काउंसिल तथा फोर्ड कार्नेगी जैसी निजी संस्थाओं से इसे सहायता तथा शक्ति मिली, जिससे व्यवहारवादी दृष्टिकोण सर्वव्यापक हो गया।

 

व्यवहारवाद का स्वरूप और व्याख्या –

व्यवहारवाद आज बहुत प्रचलित और व्यापक हो गया है, किंतु इसके अर्थ के संबंध में सभी विद्वानों का दृष्टिकोण समान नहीं है। कुछ विद्वानों के अनुसार यह केवल एक मनोदशा (mood) या मनोवृति है, तो कुछ विचारको की दृष्टि में इसके अपने निश्चित विचार, सिद्धांत और कार्य विधियां हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध और 1960 के बीच व्यवहारवाद एक साथ ही एक उपागम और एक चुनौती, एक अभिनवीकरण और एक सुधार आंदोलन, एक विशेष प्रकार का अनुसंधान और एक जमघट जमाने वालों की पुकार के रूप में माना जा रहा है, लेकिन व्यवहारवाद में अनिश्चितता की स्थिति को पार कर लिया है और अब इसके अर्थ पर्याप्त निश्चित हो गए हैं।

किर्क पैट्रिक ने व्यवहारवाद के स्वरूप का स्पष्टता के साथ विवेचन किया है, उसके अनुसार व्यवहारवाद की निम्न चार विशेषताएं हैं –
1. यह इस बात पर बल देता है कि राजनीति के अध्ययन और शोध कार्य में विश्लेषण की मौलिक इकाई संस्थाएं न होकर व्यक्ति होना चाहिए। 2. यह सामाजिक विज्ञानों को व्यवहारवादी विज्ञान के रूप में देखता है और राजनीति विज्ञान की अन्य समाज विज्ञानों के साथ एकता पर बल देता है। 3. यह तथ्यों के पर्यवेक्षण, वर्गीकरण और माप के लिए अधिक परिशुद्ध विधियों के विकास और उपयोग पर बल देता है और इस बात का प्रतिपादन करता है कि जहां तक संभव हो सांख्यिकी या परिमाणात्मक सूत्रीकरणों का उपयोग किया जाना चाहिए। 4. यह राजनीति विज्ञान के लक्ष्य को एक व्यवस्थित आनुभाविक सिद्धांत के रूप में परिभाषित करता है।

व्यवहारवाद का अधिकारी विद्वान डेविड ईस्टन को कहा जा सकता है। उसने अपने लेख ‘the current meaning of behaviorism’ में व्यवहारवाद की आधार तत्व एवं लक्ष्यों को निम्न प्रकार से प्रस्तुत किया है –

1) नियमन (regularisation) व्यवहारवादी मानते हैं कि राजनीतिक व्यवहार में सामान्य तत्व ढूंढे जा सकते हैं, उन्हें राजनीतिक व्यवहार के सामान्यीकरणों अथवा सिद्धांतों के रूप में व्यक्त किया जा सकता है और इनके आधार पर मानवीय व्यवहार की व्याख्या और भविष्य के लिए संभावनाएं व्यक्त की जा सकती हैं।

2) सत्यापन (verification) मानवीय व्यवहार के संबंध में एकत्रित सामग्री को दोबारा जांचने और उसकी पुष्टि करने की प्रक्रिया को सत्यापन कहते हैं। व्यवहारवादी अध्ययन पद्धति की एक विशेषता यह है कि उसके अंतर्गत एकत्रित की गई सामग्री का सत्यापन किया जाता है।

3) तकनीकी पद्धति (use of techniques) आधार सामग्री प्राप्त करने एवं उनकी व्याख्या करने के साधनों को स्वयं सिद्ध नहीं माना जा सकता। वे समस्यात्मक होते हैं और स्वयं अध्ययन करता द्वारा उन्हें सावधानी से शुद्ध एवं परीक्षण किए जाने की आवश्यकता है।

4) परिमाणीकरण (quantification) उपलब्धियों के विवरण तथा आधार सामग्री के लेखबद्ध करने तथा उसमें स्पष्टता लाने के लिए मापन और परिमाणीकरण किया जाना चाहिए। मापन और परिमाणीकरण का यह कार्य उनके अपने लिए नहीं, वरन् अन्य प्रयोजनों के प्रकाश में किया जाना चाहिए।

5) मूल्य निर्धारण व आदर्श निर्माण (value determination & model building) सामान्यतया व्यवहारवादी मूल्यों की दृष्टि से तटस्थ रहना चाहते हैं फिर भी नैतिक मूल्यांकन के कुछ मूल्यों व आदर्शों का प्रतिपादन और प्रयोग आवश्यक हो जाता है। इस संबंध में अपनाए गए मूल्यों व आदर्शों को अध्ययनकर्ता के मूल्यों व आदर्शों से अलग रखा जाना चाहिए और सामान्य मूल्य व आदर्श अध्ययनकर्ता के मूल्यों व आदर्शों से प्रभावित रहने चाहिए।

6) व्यवस्थाबद्धीकरण (systematization) अनुसंधान आवश्यक रूप से क्रमबद्ध होना चाहिए अर्थात् सिद्धांत एवं अनुसंधान को संबद्ध और क्रमबद्ध ज्ञान के दो ऐसे भाग समझना चाहिए जो परस्पर गुथे हुए हैं। सिद्धांत से अशिक्षित अनुसंधान निरर्थक हो सकता है और आंकड़ों से असमर्थित सिद्धांत निरर्थक रहेगा। वस्तुतः सिद्धांत और तथ्य एक दूसरे से अपृथकनीय होते हैं।

7) विशुद्ध ज्ञान (pure science) ज्ञान का प्रयोग वैज्ञानिक उद्यम का भी उतना ही अंग है, जितना कि सिद्धांतात्मक बोध का, लेकिन तार्किक रूप में राजनीतिक व्यवहार का बोध और व्याख्या पहले ही आते हैं और ऐसा आधार प्रदान करते हैं कि जिसके बल पर समाज की महत्वपूर्ण व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने की चेष्टा की जा सकती है।

8) समग्रता (integration) व्यवहारवादियों की एक प्रमुख मान्यता यह है कि समस्त मानव व्यवहार एक ही पूर्ण इकाई है और उसका अध्ययन खंडों में नहीं होना चाहिए। व्यवहारवाद के अनुसार मानव व्यवहार में एक मूलभूत एकता पाई जाती है तथा इसी कारण विभिन्न समाज विज्ञान परस्पर अत्यंत समीप हैं। अतः राजनीतिक व्यवहार का अध्ययन जीवन के अन्य पक्षों के संदर्भ में ही किया जाना चाहिए।

 

व्यवहारवाद की उपयोगिता या प्रभाव-

व्यवहारवादी क्रांति के प्रारंभिक दौर ने परंपरागत विचारकों और व्यावहारिक विचारकों के बीच शीत युद्ध के जिस वातावरण को जन्म दिया था, वह आज समाप्त हो चुका है और हमने एक ऐसी स्थिति में प्रवेश कर लिया है, जिसमें व्यवहारवाद का उचित मूल्यांकन संभव है। व्यवहारवाद की निश्चित रूप में अपनी कुछ उपयोगितायें हैं, जिसका उल्लेख निम्न रूपों में किया जा सकता है –

1. व्यवहारवाद केवल मात्र एक उपागम या दृष्टिकोण मात्र नहीं है, वरन् यह तो राजनीति विज्ञान की समस्त विषय वस्तु को नवीन रूप में प्रस्तुत करने का एक साधन है। व्यवहारवाद केवल सुधार ही नहीं वरन् पुनर्निर्माण क्रिया है तथा इसने राजनीति विज्ञान को नए मूल्य, नई भाषा, नई पद्धतियां, उच्चतर प्रस्थिति, नवीन दिशाएं और सबसे बढ़कर अनुभवात्मक वैज्ञानिकता प्रदान की है।

2. व्यवहारवाद ने वैज्ञानिकों के दृष्टिकोण को व्यापक बनाया और उन्हें इस बात के लिए प्रेषित किया गया है कि एक समाज विज्ञान का अध्ययन दूसरे समाज विज्ञान के संदर्भ में ही किया जाना चाहिए। व्यवहारवादियों के इस विचार को अत्यंत अनुशासनात्मक दृष्टिकोण कहा जा सकता है।

3. राज्य वैज्ञानिक अब तक सामान्यतया ऐसे दार्शनिकों के रूप में कार्य करते रहे हैं जो केवल नैतिक मूल्यों व आदर्शों से ही संबंध रखते थे। व्यवहारवाद ने राजनीति विज्ञान को यथार्थ के धरातल पर खड़ा करने का कार्य किया है। उसने इस बात पर जोर दिया है कि राज वैज्ञानिक का संबंध ‘क्या है’ से है न कि ‘क्या होना चाहिए’ से। व्यवहारवाद में संस्थाओं के स्थान पर व्यक्ति को राजनीतिक विश्लेषण की इकाई बनाने पर जोर देने की बात कही है वह इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रयास है। इस प्रकार उसने राजनीति विज्ञान को एकता और आधुनिकता प्रदान की है।

4. व्यवहारवाद ने अपने वैज्ञानिक अनुभववाद के माध्यम से नवीन दृष्टि, नवीन पद्धतियां, नए मापक और नूतन क्षेत्र प्रदान किए हैं। व्यवहारवाद के परिणामस्वरूप ही राजनीति विज्ञान साक्षात्कार प्रणाली, मूल प्रश्नावली, प्रणाली सर्वेक्षण प्रणाली, केस प्रणाली ,अंक शास्त्रीय प्रणाली और सोशियोमेट्री आदि अपनाने की ओर प्रवृत्त हुआ है। राजनीति के अंतर्गत अब न केवल मतदान व्यवहार वरन् राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय व्यवस्थाओं का अध्ययन भी इस पद्धति के आधार पर किया जाने लगा है।

 

व्यवहारवाद की आलोचना-

एक और व्यवहारवाद की जहां अपनी कुछ उपयोगितायें हैं वही दूसरी ओर व्यवहारवाद की अपनी अनेक दुर्बलतायें भी हैं। व्यवहारवाद की आलोचना के कुछ बिंदुओं का संछिप्त विवेचन इस प्रकार है –

1. व्यवहारवाद की सबसे प्रमुख कमजोरी उसकी मूल्य निरपेक्षता है, जिसके फलस्वरूप राजनीति विज्ञान नीति निर्माण, सक्रिय राजनीति, समाज के तत्कालिक और दूरगामी समस्याओं आदि से पूर्णतया पृथक् हो गया है। यदि मूल्य निरपेक्षता ही हमारा उद्देश्य है, तो फिर प्रजातंत्र और तानाशाही सभी व्यवस्थाएं बिल्कुल समान हो जाती हैं और एक ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसे आर्नल्ड वेस्ट ने ’20वीं सदी की दुकान घटना’ कहा है। लियो स्ट्रास के अनुसार ‘मूल्य निरपेक्षता का परिणाम गटर की बिजय ही हो सकता है और यही हुआ।’

2. व्यवहारवादी एक साथ ही मर्यादित और अहंकारी दोनों रूपों में सामने आते हैं। एक ओर तो वे अपने निष्कर्षों और मान्यताओं आदि को सापेक्ष मानते हैं और इस दृष्टि से वे मर्यादित हैं, लेकिन दूसरी ओर वे किसी भी ऐसे तत्व के अस्तित्व को महत्त्व देने के लिए तैयार नहीं है, जिसे गिना, तोला या न पाना जा सके। यह उनकी विचारधारा का अहंकारी पक्ष है और इस दृष्टि से उनमें व धार्मिक कट्टरपंथियों में कोई अंतर नहीं रह जाता।

3. रैमिनी, किर्क पैट्रिक, डैल, डायस आदि सभी ने यह आलोचना की है कि व्यवहारवादियो ने अब तक मानव व्यवहार का विज्ञान प्रस्तुत नहीं किया, यद्यपि वे लाखों डालर इस व्ययसाध्य लक्ष्य की पूर्ति के लिए खर्च करा चुके हैं। एक विश्वसनीय व्यापक और संतोषप्रद राजनीति का विज्ञान अभी तक मृगतृष्णा ही बना हुआ है।

4. दुर्भाग्यवश व्यवहारवादी इस बात को भुला देते हैं कि प्राकृतिक विज्ञान और राजनीति विज्ञान के तथ्यों में गंभीर अंतर है। राजनीति विज्ञान के तत्व प्राकृतिक विज्ञानों के तथ्यों की तुलना में बहुत अधिक जटिल, अत्यधिक परिवर्तनशील, न्यून मात्रा में प्रत्यक्षत: पर्यवेक्षणीय, कम समरूप और कार्य के उद्देश्य से परिपूर्ण होते हैं। इन कारणों से राजनीति विज्ञान को प्राकृतिक या भौतिक विज्ञानों के समान बनाने का प्रयास अत्यंत कठिन है।

5. व्यवहारवादियों की कमजोरी उनके द्वारा पद्धतियों पर अत्यधिक जोर देने के कारण भी है। एवरी लिसरसन ने यह पाया है कि ‘ये महत्वपूर्ण को छोड़कर प्रायः अमहत्वपूर्ण विषयों के संबंध में तथ्य और आंकड़े एकत्रित करने में लगे रहते हैं।’

6. व्यवहारवादियों की स्थिति इस दृष्टि से भी असंगतिपूर्ण है कि एक ओर वे अपने आपको मूल्य निरपेक्षतावादी मानते हैं, लेकिन दूसरी ओर एक भी ऐसा व्यवहारवादी नहीं है, जो उदार प्रजातंत्र में विश्वास न करता हो। वस्तुस्थिति यह है कि व्यवहारवादियो ने स्थायित्व को पूर्व धारणा के रूप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण सामाजिक लक्ष्य बना लिया है और वे रूढ़ीवादी बन गये हैं।

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