संघ की असफलता के कारण
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राष्ट्र संघ की स्थापना विश्व इतिहास का एक नया मोड़ थी। युद्ध को समाप्त कर शांति स्थापना के लिए इसका निर्माण मानवता के इतिहास में एक अभूतपूर्व प्रयास था। यह प्रथम संस्था थी, जिससे अंतरराष्ट्रीय जगत में विधि के शासन की स्थापना करने की आशा की जाती थी। यह कहा गया था कि “इसका उद्देश्य के तांडव से आने वाली पीढ़ियों की रक्षा करना है, संसार को प्रजातंत्र के लिए सुरक्षित स्थान बनाना है और एक ऐसी शांति की स्थापना करना है जो न्याय पर आश्रित हो।” किंतु यह मानवता का दुर्भाग्य था कि राष्ट्र संघ अपने महान आदर्शों, महत्त्वाकांक्षी सपनों और उद्देश्यों की प्राप्ति में सफल नहीं हो सका। राष्ट्र संघ की असफलता के कारण निम्नलिखित थे-
(1) उग्र राष्ट्रीयता – राष्ट्र संघ की विफलता का एक कारण विभिन्न राष्ट्रों की उग्र राष्ट्रीयता थी। प्रत्येक राष्ट्र स्वयं को संप्रभु समझते हुए अपनी इच्छा अनुसार कार्य करने में विश्वास करते थे। कोई भी राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा के लिए अपने प्रभुसत्ता पर किसी का नियंत्रण स्थापित करने को तैयार नहीं था। राष्ट्र संघ के मौलिक सिद्धांत भले ही नये थे, किंतु उनके सदस्य राष्ट्र परंपरागत राष्ट्रीयता की संकीर्ण विचारों पर विश्वास करते थे।
(2) सार्वभौमिकता का अभाव – विश्व शांति के लिए आवश्यक था कि विश्व के सभी देश राष्ट्र संघ के सदस्य होते, किंतु ऐसा नहीं हो सका। प्रारंभ में सोवियत संघ और जर्मनी को संगठन से अलग रखा गया। 1926 में जर्मनी को इसका सदस्य बना दिया गया, किंतु कुछ समय पश्चात ब्राज़ील और कोस्टारिका इससे अलग हो गए। 1933 में जापान और जर्मनी ने इसकी सदस्यता त्यागने का नोटिस दे दिया। 1934 में रूस इसका सदस्य बना। 1937 में इटली ने इसकी सदस्यता त्यागने का नोटिस दे दिया। 1939 में सोवियत संघ को राष्ट्र संघ से निकाल दिया गया। इस प्रकार राष्ट्र संघ के 20 वर्ष के जीवन में ऐसा कोई अवसर नहीं आया, जब विश्व के सभी देश इसके सदस्य रहे हो।
(3) अमेरिका का सदस्य न बनना – अमेरिकन राष्ट्रपति वुड्रो विल्सन ने राष्ट्र संघ की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई किंतु अमेरिका सीनेट ने सदस्यता के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। इसलिए राष्ट्र संघ को अमेरिका का सहयोग नहीं मिल सका। अमेरिका का राष्ट्र संघ का सदस्य बनने के कारण संगम के जीवन पर निम्नलिखित प्रभाव पड़े –
– राष्ट्र संघ को अमेरिका की आर्थिक और सैनिक शक्ति से वंचित होना पड़ा, जिससे उसकी शक्ति कम हो गई।
– अमेरिका के बाहर रहने से राष्ट्र संघ विश्व व्यापार संगठन नहीं बन सका।
– अमेरिका के सदस्य न बनने से जो राष्ट्र अपनी आशाएं और इच्छाएं पूरी नहीं कर पाए वे राष्ट्र संघ से अलग होने लगे।
– अमेरिका के अभाव में फ्रांस को दी गई anglo-american गारंटी व्यर्थ हो गई और अपनी सुरक्षा के लिए फ्रांस ने गुटबंदियों का सहारा लिया। जिससे राष्ट्र संघ और विश्व शांति पर बुरा प्रभाव पड़ा।
(4) राष्ट्र संघ द्वारा युद्ध रोकने की ढीली व्यवस्था – राष्ट्र संघ के विधान द्वारा युद्ध रोकने की ढीली ढाली की व्यवस्था की गई थी। प्रसंविदा की धारा 15 में अंतर्राष्ट्रीय विवादों को निपटाने की जो व्यवस्था थी, वह बहुत देरी करने वाली थी। विचार-विमर्श में ही काफी समय बीत जाता था और तब तक आक्रमणकारी को युद्ध की तैयारी करने का मौका मिल जाता था। धारा 16 के अंतर्गत भी कोई शक्ति पूर्ण कार्यवाही तब तक नहीं की जा सकती थी जब तक राष्ट्र संघ यह घोषणा न कर दे कि कोई राज्य ने संघ विधान का उल्लंघन करके युद्ध की घोषणा की है। युद्ध होने पर भी कोई राज्य अपना बचाव यह कहकर कर सकता था कि युद्ध मैंने शुरू नहीं किया है। इस प्रकार जानबूझकर की गई युद्ध को राष्ट्र संघ रोक नहीं सका।
(5) घृणा पर आधारित – राष्ट्र संघ की स्थापना का आधार घृणा थी, क्योंकि यह संघ वर्साय संधि की ही देन थी। वर्साय संधि की प्रथम 26 धाराए राष्ट्र संघ का विधान थी। इस प्रकार यह राष्ट्र संघ का अभिन्न अंग था। पराजित राष्ट्र इस संधि को घृणा की दृष्टि से देखते थे और उसे अन्याय का प्रतीक मानते थे। अतः राष्ट्र संघ के प्रति उनकी दृष्टिकोण अनुदान हो गई। इस प्रकार वर्साय संधि का अंग मानकर जर्मनी ने राष्ट्र संघ को भी अस्वीकार कर दिया।
निष्कर्ष – यह बात सत्य हैं कि राष्ट्र संघ अपने सदस्य राष्ट्रों के स्वार्थता, उग्र राष्ट्रवादिता, अति विश्वास की भावना आदि के कारण युद्ध के निवारण में तथा शांति की स्थापना के प्रयास में सफल नहीं हो सका। किंतु फिर भी इतिहास में जितने भी अंतरराष्ट्रीय संगठन बने हैं, उनमें सबसे अधिक उपयोगी राष्ट्र संघ ही सिद्ध हुआ है।